By Pushpa Sahay
बेटी का घर पर आना मानो,
सर्द रातों के बाद,
धूप का खिड़कियों से छनकर आना,
बेटी का घर पर आना मानो,
पौ फटते ही पक्षियों का चहचहाना...
बेटी का घर पर आना मानो,
ओस की बूँदों का पत्तियों पर ठहरना,
बेटी का घर पर आना मानो,
निशि के जाते ही अर्कवल्लभा का खिलना,
बेटी का घर पर आना मानो,
अर्धरात्रि में ब्रह्मकमल का मुस्कुराना...
बेटी का घर पर आना मानो,
वरदान हो देव का,
बेटी का घर पर आना मानो
आशीष हो शिव का।
बेटी मानो रूप हो गौरा का,
बेटी मानो रूप सरस्वती का।
बेटी मानो बाग में हो कोई कली,
बेटी मानो बलखाती कोई नदी,
बेटी मानो फुदकती हुई कोई चिड़ियाँ,
बेटी मानो ठुमकती हुई कोई गुड़िया।
कैसे कह दूँ मैं इसको पराई,
इसको पाकर तो मैं इठलाई,
क्योंकि बेटी का घर पर आना मानो
स्वर्ग से उतरकर कोई परी आई...
पुष्पा सहाय 'गिन्नी'
रांची, झारखंड