बचपन का कारवां – Delhi Poetry Slam

बचपन का कारवां

By Priyanka Dixit

बचपन की वो मीठी बातें,
चंचल सी सुबहें, सुकून की वो रातें।
अक्सर गुदगुदाया करते मां के हास्यपूर्ण ताने,
विस्मृत हो गए पापा के मौखिक फसाने।
हर वक्त गलियों में घूमते हम।
बेखौफ करते थे फरमाइशें,
अब केवल रह गई है खुशियों की फ़कत नुमाईशें।

खिलखिली धूप में खेलती हुई,
सारे ग़मों को भूलती गई।
बरसातों में मदमस्त भीगती हुई,
अपनी नौकाएं तैराती गई।
तब मुझे किसी से ना वास्ता था ,
हां, मेरा अलग ही रास्ता था।

टिमटिमाते तारों में, अपना नक्षत्र बनाती गई,
सुबह होते सूर्य को,प्रथम शीश नवाती रही।
दोस्तों संग घूमना मेरा सुरूर था,
पापा साथ गणित लगाने का अलग ही गुरूर था।
अपनी नन्ही से दुनिया में सोई रही,
हां मैं खुद में खोई रही।

साल था 2015, उम्र थी ग्यारह,
नए गुलशन ने मेरे आशियाने को उजाड़ा।
कहने को तो समय बीत जाता ,
पर उस समय का अलग नज़ारा था,
आसमां से मैंने अपनों को पुकारा था।
सभी ओर गमों का चौबारा था,
हां तब, मैंने भी नन्ही आंखों से जल छलकारा था।

वक्त का चक्का चलता गया ,
अंधेरों का समा मिटता गया ।
सभी साल ,शून्यता से कटते गए,
जिंदगी की रेल गाड़ी में, नए डिब्बे लगते गए।
तब पुराने पंचांग को नई तारीख दिया,
हां मैंने उभरना सीख लिया।


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