By Priyadarshee Srivastava

था सूरज बस अब फूटने को,
छाये अंधेरे लूटने को।
ब्रज में फैला सन्नाटा था,
और लगा भीड़ का तांता था।
रथ पे सवार बैठा कान्हा,
है कंस द्वार उसको जाना।
वापस आने की तिथि नहीं,
रुक जाने की, कोई विधि नहीं।
है मुश्किल सब कुछ छोड़ना यूँ,
माया का बंधन तोड़ना यूँ।
वृन्दावन पूरा सूख रहा,
कान्हा खुद भी है जूझ रहा।
जाने से पहले इंतज़ार,
आ जाये बस वो एक बार।
जो नज़र मिला लूँ राधा से,
लड़ जाऊँ मैं हर बाधा से।
देखा पर उसको दिखा नहीं।
है राधा का कोई निशाँ नहीं।
घोड़े पर चाबुक तान दिया,
जाना है यूँ ही जान लिया।
पहिया घूमा तो घूमे संग,
वृन्दावन के सारे बंधन।
यमुना ने भी मारी उफ़ान,
कान्हा को करने को प्रणाम।
यादों ने मन को घेर लिया,
कान्हा ने चेहरा फेर लिया।
आँखों से आँसू फूट रहा,
वृन्दावन पीछे छूट रहा।
आँखों से आँसू फूट रहा,
वृन्दावन पीछे छूट रहा।
कि छम-छम की कोई साज़ हुई,
'कान्हा-कान्हा' आवाज़ हुई।
रथ के पीछे वो दौड़ रही,
राधा ही है, कोई और नहीं।
चीखी राधा, भर करके दम,
कैसे निर्मोही कान्हा तुम?
इतने वादे करते थे हम,
क्या बिना मिले जाओगे तुम?
चलते रथ से कूदे कान्हा,
जाना है, पर रुक के जाना।
भागे आये राधा के पास,
करने वादों को पूरा आज।
राधा की आँखों में सवाल।
राधा की आँखों में उबाल।
राधा माँगे उससे जवाब।
राधा माँगे उससे हिसाब।
वो बंसी क्यूँ बजायी थी?
वो उम्मीदें क्यूँ जगाई थी?
क्यूँ चाँदनी रात में केशों में,
जूही की लड़ी सजाई थी?
कान्हा घुटनों पे बैठ गए,
था कहना पर लब ऐंठ गए।
कर जोड़ के, कर पड़े नमन,
है धर्म बड़ा, या मेरा मन?
क्या हो सकता कोई उपाय?
राधा तुम दे दो अपनी राय।
जो देह अगर हो पाते दो,
मैं छोड़ ना जाता मथुरा को।
माँ-बाप हैं मेरे बेड़ी में,
हैं ज़ख्म हाथ में, एड़ी में।
क्या छोड़ उन्हें मैं सकता हूँ?
ये पाप मैं सर ले सकता हूँ?
मानव जीवन का ज्ञान यही,
मन जीता तो सम्मान नहीं।
किस मुँह से बोलूँगा गीता,
जो खुद के मन को ना जीता।
पर ये भी तो है सच राधा,
तुम बिन तो मैं भी हूँ आधा।
ब्रह्माण्ड के सारे ज्ञान मेरे,
फिर भी हैं विचलित प्राण मेरे।
आया हूँ यहाँ मैं ले अवतार,
कलयुग के लिए करने तैयार।
पर तुम जो कह दो साफ़ अभी,
मैं रुक जाऊँगा आज यहीं।
अपना अपमान मैं सह लूँगा,
घटता सम्मान मैं सह लूँगा।
पर आँसू तेरे सह ना सकूँ,
पत्थर जैसा मैं रह ना सकूँ।
कहने वाले कह दें जो भी,
रूठेंगे सब साधू-जोगी।
तुम बोलो कौन सी राह चुनूँ?
इन्सान रहूँ? भगवान बनूँ?
वृन्दावन बैठा रोके साँस,
जन्तु भी सारे चुप थे आज।
जैसा राधा का होगा मत,
वैसा होगा युग का करवट।
राधा ने आँसू पोछ दिया,
क्या करना है, ये सोच लिया।
जाओ कान्हा तुम कर्म करो,
मैं प्रेम करूँ, तुम धर्म करो।
इतनी मुझको भी विद्या है,
ये देह तो खाली मिथ्या है।
तुम नज़रों से खो सकते हो,
पर दूर नहीं हो सकते हो।
मैं खुद को ही समझा लूँगी,
यादों से मन बहला लूँगी।
एक बात मेरी बस रख लेना,
एक बार पुनः दर्शन देना।
कान्हा ने बात को मान लिया,
माथा चूमा, वरदान दिया।
हमने ना लिए कोई फेरे,
पर ह्रदय में हरदम तुम मेरे।
बंसी में होगा राग नहीं,
जीवन में अब वो बात नहीं।
जब भक्त मेरी कोई बात करे,
राधा के बिन, ना याद करे।
सुन वृन्दावन भी रोआँसा है,
गोवर्धन गीला हो जाता है।
बैकुंठ में बैठे हरी के भी,
आँखों में अश्रू आता है।
जब क्षीर में थी वो बूँद गिरी,
धरती पे उठे सैलाब कई।
वो अमृत सा मीठा सा जल,
नमकीन हुआ था पल दो पल।
अब वक़्त हो चला जाने का,
अपना कर्त्तव्य निभाने का।
कान्हा रथ पे चढ़ जाते हैं,
ढाढस बलराम से पाते हैं।
पर राधा की आँखें नहीं हैं नम,
आँखों में उसके प्रेम रतन।
जितना कृष्णा के ज्ञान में दम,
उतना 'राधे' के नाम में दम।
जो गीता मुश्किल काम है तो,
'राधे-राधे' का नाम जपो।
फिर से पहिया रथ का घूमा,
और साथ चली उनके यमुना।
मन और धरम के द्वन्द का भी,
अब अंत हुआ, अब अंत हुआ।
आखिर में धर्म था जीत गया,
कान्हा का बचपन बीत गया।
आँखों से आँसू फूट रहा,
वृन्दावन पीछे छूट रहा।
आँखों से आँसू फूट रहा,
वृन्दावन पीछे छूट रहा।