आख़िर क्यों? – Delhi Poetry Slam

आख़िर क्यों?

By  Prity Sha

नारी जैसे अस्तित्व को जिसने भी बिगाड़ा है,
उस इंसान ने हमारे हाथों शायद ही कभी सज़ा पाया है।
जन्म से हमने सीखा है —
केवल दोष उसी को देना,
गलती होगी उसकी ही,
ये सीख लिया हमने निश्चित करना।
लेकिन ऐसा करने का अधिकार —
आख़िर हमें किसने दिया?

कभी मजबूरी, कभी सज़ा,
तो कभी भाग्य का नाम दिया।
जहाँ लगी उसकी आवश्यकता,
हमने केवल उसका इस्तेमाल किया।
“तुम नारी हो, पुरुष नहीं!”
ये भेदभाव भी हमने बनाया है।
तो फिर क्यों है हर अंधेरी रात के बाद —
हमने एक मोम जलाया है?

जहाँ भी पाया हमने मौका,
उसकी इज़्ज़त का अपमान किया।
‘नारी है!’ यह कहकर —
उसकी हर कोशिश को अस्वीकार किया।
क्या सोचा कभी यह हमने —
कि हम कहाँ से आए हैं?
किसके द्वारा इस जग में —
अपना स्थान आज पाए हैं?

उपकार कितने हैं इस नारी के —
क्या इसका कभी एहसास किया?
क्यों नारी जैसी शक्ति का हर बार हमने तिरस्कार किया?
"आख़िर क्यों?" नारी जैसी शक्ति का हर बार हमने तिरस्कार किया।

~ प्रीति शाह


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