By Pritika Malhotra
बचपन के वो दिन
और हमारी मासूम सी चाहतें
जिसमें हम सब कुछ बनना चाहते थे
डॉक्टर बन कर स्टेथोस्कोप लगाकर धड़कन सुनना चाहते थे
और टीचर बन कर बच्चो की किताबें लाल करना चाहते थे
साइंक्टिस्ट बनके आसमान को बहुत देर तक देखते रहना चाहते थे
कभी गायक तो कभी नृतक
सब कुछ हमें भाता था
इन सबका “ क ख ग” भले ही हमें ना आता था
मम्मी और पापा से चिपके रहते थे
यह चाहिए वो चाहिए कहते थे
भाई बहन तो ऐसे लड़ते थे
एक दूसरे के जानी दुश्मन हो ऐसे लगते थे
स्कूल से आना और पेट भर के खाना
दो घंटा आराम से सो जाना
कितना सुकून था
फिर होमवर्क कर के खेलने जाना
थक कर आना
हाथ मुंह धो के खाना और चैन से सो जाना
सब कितना सरल था
ज़िंदगी को अधूरा सा समझने में कितना मज़ा था
इन बचपन के सपनों का अलग ही नशा था
बारिश के आते ही हम ख़ुद ही मेंढक बन जाते थे
सड़क पर खड़े पानी में उछल उछल कर नहाते थे
पड़ोस में किसी के भी घर का खाना हमे बहुत भाता था
कैलोरीज़ का काउंट हमें कभी नही डराता था
गर्मी की छुट्टियों के क्या ही मजे थे
घूमने जाएँगे नानी दादी के यह दो जगह तो हमारे पक्के थे
कुछ पैसे सब रिश्तेदारों से बटोर लेते थे
अपनी गोलक में दो चार पैसे हम भी जोड़ लेते थे
हर नई चीज पहन कर थोडा तो शर्मा जाते थे
स्टाइल में हीरो हीरोइन से नखरे भी दिखाते थे
यार बचपन की नादानियाँ कितनी दिलचस्प थी
आज यादों के खजानों में से कुछ किस्से बाहर निकाले हैं
बचपन की करतूतों के और भी अफ़साने हैं