By Pratima Sharma

एक अरसे बाद ,
आज अचानक मन किया कि कोई पूछे
"क्या बनना चाहते हो ?"
"क्या करना चाहते हो ?" नहीं ,
"क्या बनना चाहते हो?"
अभी कल ही एक दोस्त ने भावुकता से पूछा था
कि "क्या करना चाहते हो ज़िन्दगी में ?
कुछ सोचा है ?
कुछ सोचोगे ?
अच्छा लगा
पर न जाने क्यों अब कोई नहीं पूछता कि "क्या बनना चाहते हो ?"
शायद वो लोग जो यह सवाल बार बार पूछा करते थे , बचपन के किसी बंद दरवाज़े के पीछे रह गए है।
शायद उस दरवाज़े पे कोई ताला लगा है
वरना वो लोग
जो उस दरवाज़े के पीछे है ,
फिर से घर आते ज़रूर
बेटा 'पोयम' सुनाओ ,
गाना सुनाओ, कहते ज़रूर
धीमे से हाथ पकड़ के
"क्या बनना चाहते हो ?" पूछते ज़रूर
वैसे काफ़ी मुश्किल रहा था
इस प्रश्न का जवाब देना
कभी लगता था कि डॉक्टर कह दूँ ,
अक्सर डॉक्टर कहने पे वो लोग मुस्कुरा जाया करते थे कभी लगता था कि इंजिनियर कह दिया जाए ,
लोग उस पर भी मुस्कुराने लगे।
सिंगर और डांसर जैसे जवाबों पे अक्सर मुस्कान गायब थी तो डॉक्टर और इंजिनियर कहने की आदत सी हो गयी ।वक़्त के साथ साथ ये सवाल कंही गुम होता गया और फिर वो लोग भी ।
आज अचानक फिर से मन किया है
कि कोई हाथ पकडे और पूछे
"क्या बनना चाहते हो ? "
और इस बार,
किसी की मुस्कान की परवाह किए बग़ैर
मैं ख़ुद मुस्कुरा के कहूँ,
कि मैं"नीर" बनना चाहती हूँ।
कभी निराकार नीर बनकर बहना चाहती हूँ ।
कभी बर्फ़ बनकर निराकार से आकार में आने की प्रक्रिया को महसूस करना चाहती हूँ ।
कभी बरसाना चाहती हूँ ,
रिमझिम भी, धुआंधार भी
कभी समुद्र होकर "शांत " शब्द क असली मायने समझना चाहती हूँ।
कभी किसी किसान का इंतज़ार
कभी आँख की चमक बनना चाहती हूँ
और अब मैं निश्चिंत हूँ कि
यही बिल्कुल सही जवाब है एक खोये हुए सवाल का
मैं नीर बनना चाहती हूँ ।