By Prashant Mahato

एक ज्वार सा उठने लगा अब,
भृकुटियाँ सबने तानी है,
जन मानस में ललकार उठी,
चलनी अब न मनमानी है।
अरे बहुत सुन लिए बहुत सह लिए,
अब करने की कुछ बारी है,
दुर्गा चंडी बनने को तत्पर,
देश की हर एक नारी है। (२)
किस पुरुषत्व का अभिमान करे वो,
जिनमें नारी का सम्मान नहीं,
समाज पर कैसा अधिकार धरे वो,
जिनका खुद के भावों पर अधिकार नहीं।
सिंहनियों के युद्ध घोष से फड़की,
आज देश की चार दीवारी है,
दुर्गा चंडी बनने को तत्पर,
देश की हर एक नारी है। (२)
था पुरुषों को दायित्व दिया,
नारी के रक्षण करने का,
फिर कैसे दिग्भ्रमित हो गए ,
और ठान लिया भक्षण करने का?
सौ पहरे लगा कर भी नारी पर ही तुम दोष मढ़ो,
तो इसे भूल नहीं मैं कह सकता तुम्हारे सोच की ये बीमारी है,
दुर्गा चंडी बनने को तत्पर,
देश की हर एक नारी है। (२)
आज लहू सभी का उबला है,
और नारी है चीत्कार उठी,
अरे तोड़ के जंजीरें सारी,
है पुरुषों को ललकार उठी।
की रण में मैं प्रतिकार करूँगी,
ना अबलाओं सा विलाप करूँगी,
दे दो खड्ग लोहे की मुझको,
मैं अपनी रक्षा आप करुँगी। (२)
अरे लोह भस्म कर के रख दे,
जिसकी आह ऐसी चिंगारी है,
दुर्गा चंडी बनने को तत्पर,
देश की हर एक नारी है। (२)