By Praniti Patidhar

मैं: नियति से तेरी परिचित,
तू रच रहा हैं नए स्वांग प्रतिदिन,
सुबह से शाम,रात से दिन
अब तो थक सी गई यह वार गिन-गिन।
नए आसमां के साथ आता हर नया दिन,
उड़ान भरने से पहले ही ढल जाता हर नया दिन।
तुम्हे रोक सके, ऐसा हैं क्या कोई जिन्न?
समय: नियति से मेरी तू परिचित,
मुझे सबके लिए समान समझना नहीं है, उचित।
कोई मुझे रोकना चाहे, कोई मुझे विदा करना चाहे,
कोई सूरज की रोशनी में बगावत करना चाहे,
कोई रात की मधुर चांदनी में शांति की महफ़िल सजाना चाहे।
आंसू के अंगारों में भागता समय ठहरा सा लगता हैं।
खुशी की किलकारियों में ठहरा समय भागने लगता हैं।
मैं: पूनम को अमावस्या समझ,
दीप जलाने लगती हूॅं।
चैत्र में भीग जाती हूॅं,
श्रावण में बूॅंद-बूॅंद के लिए तरस जाती हूॅं।
तेरी इस गति को मापने में अब,
प्रकृति भी असमर्थ।
प्रकृति भी असमर्थ।
समय: मैं ईश्वर की माया हूॅं,
प्रकृति का विधान हूॅं।
मैं ही प्राणियों का कल्याण हूॅं,
मैं ही प्राणियों का विनाश हूॅं।
यदि मापना चाहे प्रकृति मेरी गति,
तो प्रकृति खो देगी स्वयं की ही गति।
मैं अप्राप्य हूॅं, अनमोल हूॅं,
मैं समय हूॅं।