हवेलियों कि चाह – Delhi Poetry Slam

हवेलियों कि चाह

By Prakriti Shaktawat

काली धुंध से कहा मैंने कि पीछा छोड़ो, 
क्योंकि अब घर अपने जाना है |
मुस्कुराकर वह बोली कि नकाबों कि आतिशबाज़ियों मे, 
घर वह मेरा अब रहा नहीं |  
घर का क्या अब पता अलग था? 
उस अँधेरी गली के साए से मैंने पूछा |
इतराकर वह बोली कि हवेलियों कि चाह मे चलते ही,
 घर वह मेरा अब वहाँ रहा नहीं |


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