By PRABAL PRATAP SINGH

मुझे नहीं पता है, पर मैंने इसी घर से सुना है।
अस्पताल मैं मेरी माई, दर्द मैं है खूब चिल्लाई।।
डॉक्टर ने दूर खड़े मेरे पिता की और नजर घुमाई,
दोनों आंखे है टकराई, फिर मुख से आवाज आई,
मुबारक हो भाई "तुमने तो है लड़की पाई"।।
पर मेरे पापा बोले, देखो देखो सब जन देखो।
घर में है खुशहाली आई, मेरे घर है देवी आई।।
गुलाब सा चहेरा ले कर के, दोनों आंखें बन्द कर के,
मासूमियत झलका कर के, देवी का रूप धर कर के।
नन्हे कदम है घर आए, चारों ओर खुशियां लाए।।
उठना गिरना शुरू हुआ, गिर कर चलना शुरू हुआ,
खाना पीना शुरू हुआ, पालन पोषण शुरू हुआ।
लिखना पढ़ना शुरू हुआ, गुलाब का खिलना शुरू हुआ।।
अब नवरात्र के नोवमी पे, माता मुझे बुलाते है।
सब मुझे पूजा करते हैं, पकवान मुझे खिलते है।।
आह! वो भी क्या दिन थे, मेरे छुटपन के दोस्त संग थे।
सब मस्ती के रंग में रंग थे, सब जगह बस हम ही हम थे।।
और फिर जब देखो रखी आई, थाली को मैने खूब सजाई।
भाई को अपने है पहनाई, और मिलकर खूब मिठाई खाई।।
फिर जब हूं थोड़ी बड़ी हुई, मां-बाप को फिकर है शुरू हुई।
खत्म हुई अब लोरी सुनाना, अब उनका है कुछ और बतलाना।।
घर के काम में ध्यान लगाओ, रसोई में ज्यादा समय बिताओ।
पढ़ना लिखना तो हो जाएगा, बस डिग्री तक ही चल जायेगा।।
पहले कपड़ो पे अपने ध्यान दो, चाल-चलन को सुधार लो,
महमानो का सत्कार करो, सीमा में अपनी बनी रहो।
लड़की हो! लड़की बनकर रहो, ज्यादा हवा में न उढ़ो।।
ये सुन-सुन कर मैं बड़ी हुई, घर से दूर होना शुरू हुई,
इस घर में न लगता अब मन, ये सब सुनकर हो जाती तंग।
प्यार अब शायद यहां नहीं, शायद वो है बाहर कहीं।।
अब घर से बाहर है घर मेरा, दोस्तों के संग अब है डेरा।
हसी-मज़ाक हो जाता है, समय थोड़ा कट जाता है।।
उनके रंग में रंग जाती हूं, नमक के जैसे घुल जाती हूं।
कुछ समय के लिए ही सही, उस घर को मैं भूल जाती हूं।।
फिर अब पूरी बड़ी हुई, थी कली गुलाबी की खिली हुई,
पढ़ाई लिखाई सब खत्म हुई, दोस्तों से हूं अब दूर हुई।
पैरो पे अपने खड़ी हुई, और पौधे से अब हूं तरु हुई।।
थोड़ा पैसा कमा लेती हूं, खर्चा अपना उठा लेती हूं।
उसी में कुछ बचा लेती हूं, घर पे वो मैं दे देती हूं।।
कुछ समाय है ऐसा निकल गया, दिन रात का न कुछ पता चला,
फिर कैसा समय है आ गया, अपनों का रंग अब बदल गया।
घर में था बस एक ही चर्चा, कैसे निकलेगा शादी का खर्चा।।
मां ने अब चुप्पी तोड़ी, मेरे मुख पे वो सीधा बोली।
तू तो अब बड़ी हो गई, लोगों की बातें शुरू हो गई।।
सुनो! कहीं से रिश्ता लाओ, इसके हाथ पीले करवाओ।
कुंवारी लड़की घर पर है, दहेज़ का खर्चा सर पर है।।
शादी इसकी अब जल्दी हो, समाज में हमारी हो इज्जत।
लोगों का हमें न सुनना है, हमें तो इसी समाज में रहना है।।
अरे! ले आओ कोई पैसे वाला, घर अच्छा हो गाड़ी वाला।
सरकारी या हो प्राइवेट वाला, हमसे अच्छा जीने वाला।।
सरकारी वाले की रकम बहुत है, घर वालों की अकड़ बहुत है।
प्राइवेट वाला व्यापारी है, उसकी कुछ दिन में ही शादी है।
फिर मां मेरे कमरे में आई, ममता संग कुछ और भी लाई।
बेटी! डोली तेरी यहां से उठेगी, फिर तू अपने घर ससुराल रहेगी।।
मेरा मन है जैसे बिगड़ गया, अन्दर ही अंदर मचल गया।
क्या मतलब अपने घर?? क्या नही है मेरा कुछ इधर?
उस समय है मेरी समझ में आया, ये घर-घर क्या होता है।
माइका मतलब मां का घर, ससुर का घर ससुराल होता है।।
पर मुझको न है तनिक खबर, मेरा यहां है कौन-सा घर?
प्रशन ये कटा सा चुबता है, अंदर ही अंदर मुझे खाता है।
ये मां का घर, वो ससुर का घर,
कभी पति का घर, कभी फलाने का घर।
है यहां पे सबका घर, पर मेरा यहां न कोई घर।।
वर्षो तक जिस घर पली-बड़ी, दिन रात हंसी-खुशी खेली,
अब जब हूं पूरी बड़ी हुई, पौधे से हूं अब तरु हुई।
इन्होंने मुझे पराया बना दिया, अंदर से पूरा डरा दिया।।
मां का घर अब छूट गया, अब नया घर है देखो आ गया।
दिन रात यहां करती हूं काम, तनिक भी न है मुझे आराम।।
मुझे यहां कुछ नहीं चाहिए, बस दो शब्द है प्यार चाहिए।
वह भी न मिलाता यहां, समझ न आए अब जाऊं कहां।।
मां का घर तो छूट गया है, यहां से मन भी ऊब गया है।
समझ नहीं आए कहां जाऊं? पटरी के नीचे या खुद को जलाऊं?
घोर अंधेरा सा दिखता है, मेरी रूह कांप जाती है।
जो मुझे निगलने को आता है, मेरी जान निकल जाती है।।
अन्दर से मैं घबरा जाती हूं, दिल धक-धक धक-धक करता है।
बहुत ही जादा दर जाती हूं, घुट- घुट के अन्दर रोता है।।
छोटे पे, मैंने एक घर बनाया था, मन से खूब सजाया था,
गुड्डे-गुड़ियों को उसमें बिठाया था, लोगों से दूर छुपाया था।
मेरे बचपन का था उसमें डेरा, शायद! वही था घर मेरा।।