By Pournima Khanolkar
कभी हवासी उडती
तो कभी ज्योतीसी जलती हूँ मैं।
कभी मचलती चहकती
तो कभी सिसकती...सिकुड़ती हूँ मैं।
कभी नदीसी बहती ...
तो कभी बुलंद चट्टान हूँ मैं।
कभी लोहेसी सख्त
तो कभी नरम रुई हूँ मैं।
कभी मंदिरों की शान
तो कभी पाँव की भूल हूँ मैं।
कभी बाबुल का आंगन
तो कभी सैया के संग हूँ मैं।
कभी ममता का आंचल
तो कभी राखी का धागा हूँ मैं।
कभी गुलाब का फुल
तो कभी काटें भी हूँ मैं।
कभी उलझीसी....
तो कभी बहुत सरल हूँ मैं।
कभी हार कर टूंटी
तो कभी टूट कर फिर खड़ी हुई हूँ मैं।
कभी अस्तित्व के लिए लड़ती
तो कभी अपना वजूद भूलती हूँ मैं।
जैसी भी हूँ
मगर बहुत जरूरी हूँ मैं।