मैं और तुम – Delhi Poetry Slam

मैं और तुम

By Pankaj Sudan

ओ आनंद - सूर्य !
जुगनुओं के साम्राज्य में भ्रमित
मुझ सूरजमुखी को
तुझ बिन चैन कहां ?

जब जब तेरे तीव्र प्रकाश को भुला
मैं नित्य नए रंगों के
अध्ययन अन्वेषण में लग जाता हूं
तो मेरी छटपटाहट बढ़ती जाती है
क्योंकि प्रत्येक तृप्ति का घृत
और भड़का देता है
मेरी अतृप्ति की धधकती लौ को।

मेरी "अनजान" की और यात्रा
प्रमाण है इस तड़प का
इस भटकन का.
क्योंकि तेरे बिना कौन है
जो मुझे प्रकाश - संतृप्त कर सके ?

ओ विराट!
लघु में जब जब तुझे
मैंने पाना चाहा
प्रत्येक प्राप्ति की सीढ़ी 
धकेल गई मुझे
एक अलग तरह की 
अप्राप्ति की खाइयों में
और सुख - मदिरा का प्रत्येक प्याला 
भड़का गया हृदय में
प्यास के चंद और शोले।

आह ! मेरे असंतृप्त मन !
तुझ जन्म जन्मांतरों से प्यासे
कंठ को तृषित करेंगे क्या
ये चंद शबनम के कतरे ?

ओ परमाश्रय !
थकान से लड़खड़ाते
मेरे कदमों के नीचे
प्रत्येक मंज़िल बजाती है बिगुल
एक नई यात्रा के आरम्भ का।

और प्रत्येक विश्राम
करता है सृजन नई थकान का
क्योंकि देर जो हो हुई जाती है
तुझ से मिलने में
और उस ओर तुर्रा यह कि 
गुरु से गुरूतर हुई जाती है
कंधे पर लदी 
समय की गठरी।

ओ प्रियतम !
जब जब तुझे बिसरा
उलझा रहता हूं मैं
तेरे बाह्य आकारों में
तो हुआ रहता है ओझल
अप्रतिम सौंदर्य तेरा
मेरी विश्लेषणकारी 
द्वैत - दृष्टि से।

पर जब तेरी धड़कन से
धड़कता है मेरा दिल
और तू ही बहता है मेरी नसों में
झूलता है मेरी सांसों के झूले
और झांकता है मेरे ही नेत्रों से
तब तेरी दृष्टि
हो जाती है मेरी दृष्टि
क्योंकि मैं तेरी सृष्टि हूं
और तू मेरी सृष्टि।


1 comment

  • Thanks for considering my one of the poems for giving a space on your partner site at Delhi Poetry Slam.

    Pankaj Sudan

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