By Omprakash Tiwari

बायस, खग स्तब्ध हुये
अवनि, अम्बर काँप गये
हाहाकार मचा क्षण में
छिप गये जीवन पल में।
घोर नाद, भयंकर बिजली
कर्ण, नयन सब बंद हुये
लाशों की ढेरी बिखर गयी
धुँएँ के अम्बर सज गये।
बदला रूप, नजारे बदले
बदल गया जन-जन का मन
स्तब्ध हो गयीं दशों दिशाएँ
खामोश हो गये अन्तर्मन ।
चीख पुकार की गूँजों से
काँप गया भू-तल गगन,
रो-रोकर सूख गये
माँओं के सूने नयन।
जहाँ गूँजती थी किलकारी
उजड़ गये अब नन्दन-वन।
कहीं नर-मुंड, कहीं बाहें
कहीं सिसकती हुई निगाहें
मौत खड़ी बाहें फैलाए
सहमी मंजिल, जन की आहें।
भीषण दावानल में झुलसा
श्यामल-गौर बदन
उजाड़ दिये उसने आज
फूलते-फलते चमन।
रक्तमांस के लोथड़े
कपड़ों में इकट्ठा करते हैं
कुछ बर्बर शैतानों के
इरादे ही फूलते-फलते हैं।
कितना वीभत्स मंजर है
मानवता भी शरमायेगी
ऐसे कुकृत्यों से
सभ्यता ही मिट जायेगी।
सभय निरंतर विचरण करते,
जीवन जीने की आस लिये
कहीं न फिर से अनहोनी हो
तरस रहे जीवन के लिये।
पता नहीं कब, क्या होगा?
पंचभूत मिट जायेगा
जीवन के सुन्दर झरनों में
प्यासा ही मर जायेगा।
आज चला था जीवन जीने
भर कर श्री सुधा पीने
खो गया जीवन का साया
पल में छूट गयी माया।
बोझिल मन, गहन चिंतन
करुण क्रंदन, अकुलाता मन
अवसाद की बदली ऐसे बरसे
जैसे, बरसे सावन।
नष्ट हो गयी मानवता
भ्रष्ट हुए सब मानव
चिन्तन की जगह चिंता ने लिया
कर्म करें, जैसे दानव।
शान्त, मौन, निश्चेष्ट पड़ा
हलचल की कोई निशानी नहीं
अभी नहीं है, जो पहले था
छिप गया जाकर कहीं।
अनजानी राहों पर
चल पड़ा बिन मंजिल ही
कहाँ भटक कर जायेगा
बंद हुई राहें सभी।
निर्भय घूम रहा मग में
आती बाधा पग-पग में
फिर भी निर्भय डग भर
सोच रहा कुछ गूढ़ गहन।
भयहीन नहीं कोई प्राणी
सहमें-सहमें चलते हैं
अपने ही विचारों में खोये
जीवन जीने को तरसते हैं।
भूखे बच्चे चिल्लाते हैं
मानव की झलक दिखाते हैं
क्षुधा पीड़ित, जर्जर तन
सोया जमीर जगाते हैं।
हम तो विवस बेचारे हैं
गम के कितने मारे हैं
दोष किसे दें जग में
सब, किसी-न-किसी के सहारे हैं।
स्वार्थ में अंधा समझ न पाये
क्या खोये, क्या अपनाये ?
अंधी बुद्धि का सहारा क्या ?
राह तुम्हें क्या वो दिखलाये ?
आज सभी कुछ अपना है
ऐसे विचार उठें मन में
कभी निहारो परिजन को
समता लाओ जन-जन में।
नहीं बिगाड़ो नियम प्रकृति का
वो, सह नहीं पायेगी
कोई नहीं बचाएगा तब
जब वो, तुम्हें मिटायेगी।
आवाज दे रहा झाँको तुम
अपने उर के आँगन में
राह निहार रहा तेरी
कब से, नील गगन में।
मुझे नहीं पहचाना तुमने
मैं हूँ तेरी छाया
जैसा तुमने चाहा
वैसा ही रूप बनाया।
मैं तो बिखरा हूँ सर्वत्र
सभी में मैं हूँ समाया
सबके उर आँगन में
प्रेम के फूल खिलाया।
आज विवशता इतनी है
जिसकी अपनी कहानी है
नियति ने करवट बदली
छोड़ी नहीं निशानी है।
नष्ट कर दिया अपनी ही कृति
नष्ट कर दिया सभी निशानी
अवशेष बचे रोने के लिये
अब केवल, बची कहानी है।