बढ़ते जाओ-गढ़ते जाओ – Delhi Poetry Slam

बढ़ते जाओ-गढ़ते जाओ

By Om Prakash Shukla

थके नहीं
बढ़े चलें
पग डगमग न हो
बनती चलें लकीरें
सम्भव है
पथ डगमग करने की
डटे रहें
बढ़े चलें
कंकड़ पत्थर कांटे
होता पग लहू-लुहान
लिखते जाओ
बढ़ते जाओ
गढ़ते जाओ
बाधाओं को दर किनार करते जाओ
जब तुम डगमग होगे
पथ पर निश्चल होगे
बढ़ते जाओगे
देख व्यथा राही की
पथ प्रशस्त
जल ,थल ,नभ सब मिलकर
करते जाएंगे
जय होगी - विजय होगी।


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