अनचाही – Delhi Poetry Slam

अनचाही

By Nikita Naredi 

तैर रही थी पानी के बुलबुले में नौ महीने अस्थाई आवास में।
थी गर्माहट उसके स्नेह की आलिंगनबद्ध मुझे किए हुए।।

परिवर्तित हो रही थी अंकुर से शिशु के रूप में सुनते हुए उसकी सुरीली लोरिया।
उसके गोद में आना चाहती थी जिसकी थी इतनी मखमली उंगलियान ।।

वो तत्पर थी मुझे जल से थल पर लाने को ।
मैं तत्पर थी इस आंगन से उस प्रांगण में आने को।।

सोचती थी सभी कितने हर्षित और उल्लासित होंगे मुझे देख कर ।
न आभास था, मेरे आगमन से मायूसी छाएगी सभी के चेहरे पर।।

न थाल बजे, न बटे लड्डू और  न बजी शहनाइयां।
वंश चलाने वाले को न लाने पर उसे  मिली ताने और नाराज़िगियां।।

हर कोने से जब मिली बेरुखी, हुआ हृदय मेरा व्याकुल ।
क्यों ईश्वर ने की हमारी रचना जब हम हैं न किसी को कबूल।।


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