By Nidhi Sinha
मत बांधो इन क्षणों को समय मे प्रिये,
उन्मुक्त मुझे इनको जीने दो,
इन हवाओं को भीतर घुलने दो,
इन बूँदों को छूने दो।।
कभी बनूँगी नदी मिलूँगी सागर मे, वो वक्त भी आयेगा,
पर उस गहनता को आने मे,
अभी वक्त जरा जायेगा,
अभी तो मुझको बन जाने दो,
निर्झर निश्छल जलधार,
जो छू कर गुजरे हर पगडंडी,
हरी-मुलायम घास।
जो त्रृप्त करे प्यास उड़ते खग की,
और सूखे तरु का पोषक आलंब बने,
जिसका कोमल स्पर्श पथिक के,
थके पाँव का आनन्द बने।
मुझे नही कौतूहल जग मे,
कि सत्ता का संघर्ष कहाँ,
मुझे नही रुचि प्रपंच मे,
किससे किसका बैर यहाँ।
जीवन गर त्रृष्णा है तो भी,
जी भर त्रृष्णा करने दो,
जड़ता मे जी चुकी बहुत प्रिये अब,
सरस सलिल सा बहने दो।।
मत बांधो इन क्षणों को समय मे प्रिये,
उन्मुक्त मुझे इनको जीने दो,
इन हवाओं को भीतर घुलने दो,
इन बूँदों को छूने दो।।