By Neha Raj
तुझको पाने की चाह में,
चल पड़ी मैं जिस राह में।
उस पर अंधेरा गहराता गया,
ठहर गई मैं, हताश हृदय में।
था इसका बोध मुझे हरदम,
फिर भी क्यों रही हूं हार मैं।
क्यों नहीं थामते हाथ मेरा,
क्यों मैं अटकी मझधार में?
मीरा न सही, राधा भी नहीं,
है ऐसा समर्पण भाव कहां।
पर हृदय की सम्पूर्ण भावना,
तुझ पर करती हूं वार मैं।
बहते अश्रु रुकते नहीं,
हे कृष्ण, अब हो जाओ द्रवित।
तेरे ही प्रेम और करुणा में,
तेरी यह नेहा है पूर्णतः आश्रित।