By Neelam Jaiswar

अपनी ही बहन का अपमान देखकर
तसल्ली तूने बड़ी है पाई।
कानाफूसी कर-करके
औरत ने ही औरत की कमी
हर तरफ सबसे पहले फैलाई।
आज उसके साथ हुआ —
कल तेरे साथ भी तो हो सकता है,
यह सोच कर,
जब,
तु मन में जरा भी नहीं घबराई —
तब,
"औरत ही औरत की दुश्मन है",
यह कहावत बनकर आई!!
बहू, सास से कई
पीढ़ियों से डरती चली आई।
ननद-भाभी में तो
जैसे सांप-नेवले सी लड़ाई।
देवरानी-जेठानी ने भी
एक-दूजे को नीचा दिखा,
ना जाने कौन-सी रस्म है निभाई!
और फैशन में इतराती प्यारी गुड़िया भी,
जब,
दादी-नानी की रोक-टोक से
नहीं बच पाई —
तब,
"औरत ही औरत की दुश्मन है",
यह कहावत बनकर आई!!
माना, तूने पढ़-लिखकर
अपनी रोज़ी-रोटी है कमाई।
तो उस अनपढ़ ने भी
सुबह से शाम तक खटकर ही
अपनी रोटी है खाई।
फिर भी, जब किसी बेबस की
सरेआम हो रही थी रुसवाई,
तो "यह इसी लायक है", कहकर,
जब,
तूने फट से ताली बजाई,
तब,
"औरत ही औरत की दुश्मन है”,
यह कहावत बनकर आई!!
दरअसल घर में रहकर कुछ भी करने वाली की
बड़ी मुश्किल से होती है बड़ाई।
फिर वह पड़ोसन भी तो उसे "बेचारी" बोलकर,
खुद पर आज है इतराई|
तो सोच लिया औरत ने,
बाहर निकलने में ही है उसकी बड़ी भलाई,
जान तो बच ही जाएगी और होने लगेगी कुछ कमाई!
यू खुद को साबित कर सम्मान दिलाने की चाहत मे
जब
औरत ने ही औरत के खिलाफ
अखाड़े में छलांग लगाई —
तब,
"औरत ही औरत की दुश्मन है"
यह कहावत बनकर आई!!
हर औरत के जज़्बात में
मैंने एक-सी छटपटाहट है पाई,
क्योंकि
होती नहीं आसानी से किसी भी औरत की सुनवाई।
तो क्या फर्क पड़ता है —
तू किस घर से है आई?
किस घर में है ब्याही?
क्या कमा कर है लाई?
रे सखी!
जब;
औरत ही औरत की
कसकर थाम लेगी कलाई —
तब,
"औरत ही औरत की दुश्मन है"
इस कहावत से मिल जाएगी रिहाई।
इस कहावत से मिल जाएगी रिहाई।