कूड़े के ढेर पर जिंदगी – Delhi Poetry Slam

कूड़े के ढेर पर जिंदगी

By Navneet Ramesiddhi

क्या तुमने कभी देखा है एक ही वक्त पर 
अलग अलग वक्त की 
अलग तस्वीरें 
एक ही दुनिया में कई अलग दुनियां 
और उनकी  
अलग अलग तस्वीरें 

आदमी

आदमी आदिमानव ही तो था 
ये पढ़े थे हम कभी 
पर आज भी है वो 
देखते है हम सभी 

रहता है सड़क के किनारे 
पालीथीन की बनी गुफा में 
जो मुश्किल से ही  
सह पाती है गर्मी में सूरज की धूप, 
क्या बारिश में बचा पाएगी बारिश की नमी से

सहती है तेज थपेड़े आंधियों के 
पर वो स्थिर रहती है अपनी जगह 

कही ज्यादा 

राजनेताओं के ईमान से 

उसमें रहने वाला इंसान 
करता है इंतजाम खाने का 

कूड़े के ढेर से 

कूड़े की खोज में मिलते है उसे 
शहर के आवारा कुत्ते 

वो भी उसी की तरह हैं आवारा
उनका भी तो कोई घर नही 

और वो कुत्ते किसी शेर से कम नही 
जिससे जीतता है जंग वो शख्स हर रोज, हर पल 
अपनी जिंदगी में ,
अगर मर भी जाए वो लड़ते लड़ते 
तब भी किसी को पड़ता कोई फर्क ही नही है 

अभी पिछली रात टूटा हुआ साइकिल का पहिया 
उठाते हुए पकड़ा गया था उसे 
सड़क के किसी किनारे से
 
और दी गई खूब यातनाएं पूरी रात थाने में 

क्योंकि 

अभी भी पहिया की खोज नही हुई है उसके जीवन में 
इसी लिए वो बिनता है कूड़ा पैदल चल के 

कुछ रहीश लोगों को लगता है कि पृथ्वी पर हुई ग्लोबल वार्मिंग
और हवा में जहर उसने ही घोला है 

जो शहर के रहीशो ने फेंका है कूड़ा 
उसी के घर पे ,

नदियां हुई प्रदूषित 
फेंकी गई प्लास्टिक की बोतलों से 
जिसको वो हर रोज बिनता है पैदल चल के 

क्योंकि 

क्योंकि 
अभी भी उसके जीवन में 
पहिया की खोज नही हुई है।


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