By Navkirat Kaur
अकेलेपन के आगोश में, मैं अक्सर रेहता हूँ,
धीमी सी आवाज़ में, मैं अपना घर ढूंढ लेता हूँ।
गेहरे अन्धेरों में, जहाँ विचार उड़ान भरते हैं,
अपनी रात मैन वही गुजार लेता हूँ।
कोई नही समझता इन भावनाओं की गेहराई को,
शायद इसिलिये मैं दूर अब सभी से रेह्ता हूँ।
तन्हाई के उस पल को,
हर रोज गले से लगा लेता हूँ।
जैसे अन्तरिक्श में एक एकांत तारा,
मैं भी सहारा ढूंढ रहा हूँ।
परन्तु शब्द गुम जाते हैं, अर्थ घुमिल जाते हैं,
अन्त में मैं अकेला ही खड़ा हूँ।
मेरे मन के शान्त कोनो में,
मैं एक एकान्त गीत पाता हूँ।
शायद मुझे कोइ स्म्झेगा,
इस खयाल में, मैं फिर डूब जाता हूँ।
भावनाओं के भूल भुलैये में,
मैं खुद एक रहस्य हूँ।
मुझे कोइ नही समझता
मैं अनसुलझा सा हूँ।
न जाने कब न जाने कैसे,
तन्हाई अछी लगने लगी।
शायद मैंने वह पा लिया है,
जो हर किसी की समझ में भी नहीं।
मुझे कोइ नहीं समझता,
मैं खुद को समझ गया हूँ।
इस तन्हाई में ही सही,
मैं स्वतंत्र हो गया हूँ।