सर्वशक्तिमान – Delhi Poetry Slam

सर्वशक्तिमान

By Narendra Pratap Singh

अंधकार की सर्वशक्तिमान सत्ता में,
ढूंढती प्रकाश की एक छोटी सी किरण,
कहीं शरण, कहीं थोड़ी सी छाँव। 

लेकिन अंधकार का साम्राज्य भयभीत करता रहा,
सभी के अस्तित्व को ढकता। 
मिटा देना उसे सभी के अस्तित्व को ,
जो उसे चुनौती दें कभी भविष्य में। 

जो हों खड़े प्रतिकार में,
कभी उसके। 
उसे आकाश में फैली स्निग्ध शीतल चंद्र की सत्ता से,
तारों के नीले प्रकाश में विस्तारित नभ की दुनियाँ से,
नहीं लगता दर कभी। 

वह जानता वे सुदूर,
अंतरिक्ष में स्थित,
डरे, कमजोर लोग, विचरते नभ में ,
उनसे क्या भयभीत होना। 

वह भयाक्रांत होता,
उन रेख सी मरियल,
प्रकाश किरणों से, जो छिपी  बैठी,
उसके ही साम्राज्य में,
इधर उधर फैली हुई। 

कथाओं में उसने पढ़ा,
एक नन्ही सी प्रकाश की किरण,
कर लेती अपना विस्तार अनंत तक। 

अचानक अनंत रंध्रों से फूट वह ,फैल जाती नभ तक। 
और बना लेती नभ को अपना दास एक दिन,
पल में लील लेतीं, सभी कुछ,
विशालकाय अंधकार की सत्ता को भी। 

तब नहीं बचता कहीं भी अंधकार की सत्ता का अवशेष,
नहीं बचता उसका कोई अंश। 
इसलिए वह ढूंढती हर क्षण,
प्रकाश की पतली सी भी रेख,
चाहती उसे नष्ट कर दे सदैव को। 

जिससे हो निर्भय, नष्ट होने के भय से हो मुक्त, रहे नश्वर। 
रहे उसका अखंड राज्य अनंत तक,
काल के हर खंड में रहे वही जीवित, 
उसी का हो यशोगान धरा के हर छोर पर अंकित। 

वही रहे सदा, कोई न हो दूसरा उससे बड़ा कभी,
विजित रहे सदा अंधकार, धरा के अस्तित्व तक। 

अजन्मे ही मरें कोख में,
प्रकाश के वंश बीज,
जिनसे उपज सकती हो, 
उसकी सत्ता के प्रतिरोध की संभावना,
चाहता वह नाश हो,
प्रकाश की हल्की सी झिरी का भी,
विजिट रहे सर्वदा वही । 


Leave a comment