By Namita Mathur

वसु, राधेय, दानवीर, अंगराज, कर्ण
और..
कौंतेय
कितने नाम थे कुंतीपुत्र कर्ण के।
आज एक महान रचना मृत्युंजय पढ़कर समाप्त करी
और मन सोचने को विवश हो गया
कि इतने महान व्यक्तित्व
शूरवीर, महारथी को
संसार के कितने ताने और उलाहने सहने पड़े
सिर्फ इसलिए कि वह जन्म से तो क्षत्रिय था,
पर आजीवन रहा अधिरथपुत्र राधेय!!!
इसमें उस महा पराक्रमी का क्या दोष?
क्यों गुरुद्रोण ने, भीष्म ने, यहां तक कि
उसके अपने बंधुओं ने उसको धिक्कारा?
बार-बार सूतपुत्र कहकर उसका परिहास किया।
इतिहास के पन्नों में ऐसा विशाल ह्रदय वाला,
पराक्रमी, निष्ठावान, कर्ण जैसा दूसरा नहीं।
अगर श्रीकृष्ण सारथी थे,
तो कर्ण भी तो सारथी था!!!
फिर यह भेदभाव क्यों??
और यह परंपरा जन्म-जन्मांतर से,
सदियों से वहीं की वहीं है।
आज भी जन्म, जाति और रंग के आधार पर
कितना कुछ बंटा हुआ है
संसार के हर वर्ग में,
हर क्षेत्र में।
आज भी अनेकों कर्ण धिक्कारे जाते हैं
समाज के उन अधिकारियों द्वारा
जो सिर्फ भेदभाव जानते हैं –
जाति का, धर्म का और वर्ग का।
आज भी न जाने कितने कौंतेय
आजीवन अपनी असली पहचान को तरसते रहे
और अंततः मिल गए उस मिट्टी में,
जिसमें मिलने के बाद रक्त का सिर्फ एक रंग होता है –
और वह है:
रक्ताभ।
जो क्षत्रिय का,
सारथी का और
ब्राह्मण का
अलग-अलग नहीं होता।।