By Muskaan Verma
जब थी दसवीं जमात में.....
तो खयाल आते थे दिमाग मे....
बारहवीं के बाद कुछ यूनिक करूंगी....
अच्छी सी यूनिवर्सिटी में ऐडमिशन लूंगी...
पर मैं अंजान थी इस बात से..
कभी खुद को नापा ही नहीं समाज की औकात से..
ख़ैर....आगे बढ़ते हैं,
मेरी किस्मत में जो लिखा था उसकी चर्चा करते हैं।
जल्दी ही मुझे लड़की होने का एहसास दिलाया गया..
और गांव के कॉलेज में पढ़ने के लिए मनाया गया...
कॉलेज बुरा नही था....
पर शायद मेरे अरमान इससे ज्यादा बड़े थे।
यूं तो बचपन से सोचती थी कि कलेक्टर बनूंगी,
देश को भ्रष्टाचार,गरीबी, शोषण आदि के जाल से बाहर लाने की पूरी कोशिश करूंगी।
लेकिन अब लक्ष्य तो वही है,पर उसे पाने का कारण अलग।
एक लड़की क्या कर सकती है और क्या नहीं......
बस यही बताना है मेरी तलब!
यूं तो मुझे भी बड़े नाज़ों से पाला है...
और बचपन से ही अंग्रेजी मीडियम स्कूल में डाला है।
ना कभी पैसे की तंगी,ना किसी बात की परेशानी...
पर मैं क्या चाहती हूं ,बस यही बात न जानी।
रखो मुझे इतने ठाठ से, मैने कभी नही कहा अपने मां बाप से।
यूं तो ज़माने ने हर चीज़ में तरक्की की है..
पर हम लड़कियों की गाड़ी तो जहां थी वहीं पर ही खड़ी है!
माना की शहरों की लड़कियां तरक्की करती हैं,
पर अस्सी प्रतिशत जनता तो गांव में ही बसती है!
कभी कभी सोचती हूं की काश लड़का होती,
तो कभी लड़की होने पर गर्व करती हूँ..
समाज द्वारा लगाए गए सारे बंधन तोड़ सकती हूं...
पर.....
घर की इज्ज़त हूं....
बस इसी बात से डरती हूँ!
जब जब ये लड़की होना मुझे आगे बढ़ने से रोकता है....
कामायाब होने का जनून और ज़ोर से दौड़ता है!
बचपन से ही मेरे सामने एक आईना लाया गया है,
जिसमें में सिर्फ एक ज़िम्मेदारी हूँ.....
जिसे मेरे परिवार द्वारा बड़े ही गर्व से निभाया जा रहा है।
परंपराओं के हिसाब से इस जिम्मेदारी का ठेका कोई ओर महान इंसान उठाएगा,
जो मेरे लिए एक चाबुक कहलाएगा ।
इस चाबुक को परमेश्वर का दर्ज़ा मिल जाएगा...
जो रोज़ शाम को आकर अपने अहसान गिनवाएगा।
ताना नहीं कस रही....
बस सच्चाई बता रही थी,
ज्यादातर लड़कियों के साथ जो होता है,
उसी पर ये कविता बना रही थी ।
धन्यवाद।