By Mukesh Vaishnava
अपनों की भूख छुपाने वो,
गाँव से शहर निकला था,
बच्चों की आंखों में नमी, थी,
और आसमान भी पिघला था।
पत्नी की तो पूछो मत, वो,
दरवाज़े पर आँसू रोके देखती रही,
किसी ने कह रखा था, जब ,
जाए कोई पीछे से रोते नहीं।
जब चले जायेंगे तो फिर,
जी भर फुट-फुट रोयेगी जरूर,
ढाढस तो बँधायगी बुजूर्गों को,
बच्चों से आँसू छुपायगी जरूर।
सावन आया टपकती छत ने,
उसके मन को बरसाया बहुत,
"जाने कहाँ होंगे, क्या हुआ होगा",
खाया भी होगा, कुछ थोड़ा बहुत?
सारी नाराज़गी, वो भूल पड़ी थी,
ग़म की बदली जो टूट पड़ी थी,
तकिया पल्लू भीगा रात जल गई,
थाली सिरहाने सुबह तक पड़ी रह गई।
उसने कुछ दिन मंदिर के, ही,
प्रसाद से गुजारा किया था,
अब सब कुछ ठीक हो जायेगा,
निकला था, तब ये वादा किया था।
दिन ही नहीं रातें भी निरंतर,
काम का बोझ उठाया था,
सालों जला लोहा कुंदन बना था,
तब बंजर भूमि पर सावन आया था।
मनीऑर्डर तो आया समय पर,
मन में सुकून की कमी पड़ी थी,
थाली में चटनी की जगह सब्ज़ी थी,
फिर भी चटनी से फीकी पड़ी थी।
चार दीवाली बाद घर लौटा था,
काले बालों पर सफेदी चढ़ि थी,
मुन्नी छोटी से हो चुकी बड़ी थी,
पत्नी दरवाज़े पर आस लिए युहीं खड़ी थी।
असल जिंदगी का रहस्य तो तब,
आंखों के सामने था झिलमिलाया,
सुकून का पहला निवाला सालों में खाया,
देख पत्नी की आँखों में जल आया।
आसाध्य को साधने में जुटी जिंदगी,
साधन संजोने की अनंत तिश्नगी,
सृजन की परिभाषा को परिभाषित,
करती नए सिरे से फ़िर से ज़िन्दगी।।