मैं टूटी नहीं, मैंने खुद को तराशा है – Delhi Poetry Slam

मैं टूटी नहीं, मैंने खुद को तराशा है

By Mrittika Mal

गिरते हुए देखा सबने मुझे,
पर उठते हुए, मैं खुद गवाहा हूँ।
बिस्तर की जंजीरों में जकड़ी थी,
पर आज़ाद उड़ानों का मैं राही हूँ।
 
मांसपेशियाँ साथ छोड़ गई थीं,
हौसला मगर मेरा साथी था।
दर्द ने बहुत कुछ छीना मुझसे,
पर आत्मा की लौ कभी न बुझी थी।
 
मैं वो नहीं जो हार के बैठ जाए,
मैं वो हूँ जो हर चोट को जीत में बदल जाए।
जिसे ज़िंदगी ने बार-बार तोड़ा,
पर हर बार मैंने खुद को और मज़बूत जोड़ा।
 
ना थे पाँवों में बल, ना थी राहों में रोशनी,
फिर भी मैंने चलना सीखा —
अपनी आत्मा की आवाज़ में खुदा को देखा।
 
लोग कहते थे — "अब कुछ नहीं हो सकता,"
मैंने जवाब दिया — "अब सब कुछ यहीं से होगा।"
 
विवेकानंद की वाणी बनी दीपक,
आयुर्वेद ने दिया नया जीवन।
अब मैं सिर्फ ज़िंदा नहीं हूँ —
मैं प्रेरणा का जीवंत उदाहरण हूँ।
 
अब हर दर्द है मेरी ताक़त,
हर आंसू है मेरी पूजा।
मैं टूटी नहीं, मैंने खुद को तराशा है,
अब मेरी रौशनी औरों की भी दूजा।
 
आज मैं सिर्फ़ एक नाम नहीं,
मैं उम्मीद हूँ उन सबकी जो टूटी हुई शाम हैं।
मैं दीपक हूँ अंधेरों में,
मैं मुस्कान हूँ तूफ़ानों की।


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