लज्जा – Delhi Poetry Slam

लज्जा

By Mridula Jha

लज्जा वो नहीं जो दो हाथ लंबी घूंघट में छिपी हो,
या फिर घर के दहलीज के अंदर दबी हो, 
पुरुष के पैरों की जूती बना दे जो, 
वो भी नहीं लज्जा।

मुँह सील कर, 
हर जुल्म सहना सिखा दे,
वो भी नहीं लज्जा।

लज्जा सहनशीलता है,
गुलामी नहीं।
ये विनम्रता है, शालीनता है, 
भीरूता या दारुणता की निशानी नहीं।

तू काली है, तू दुर्गा है 
फिर क्यो जलती है दहेज के अंगारों में!
तू सीता है, तू सावित्री है,
फिर क्यो बिकती है बाजारों में!

कब से सोई है तू,
और कब तक सोयेगी!
उठ जाग, अपने को पहचान,
मांगे से जो न मिले तो छिन अपने स्त्रीत्व का सम्मान!

इस पुरूषों के समाज मे,
तेरा भी अधिकार है।
मर्दों को जनने वाली, 
तू ही समाज का आधार है।

लज्जा सिर्फ,
औरतों की ही विरासत नहीं।
पग-पग पर जरुरी,
पुरुषों की हिरासत नहीं।

लज्जा सिखलाती है रहना,
उच्छृखलता की सीमा से परे।
पर स्वतंत्रता तो जरुरी है,
फिर क्यों नही तोड़ देती सारे पहरे!

 पुरुषों से बराबर का हक पाना है,
 चल उठ दूर, बहूत दूर, तूझे जाना है!


3 comments

  • Beautifully written. The way u have woven words together it’s truly magical…keep sharing your good work.

    Mukti jain
  • True depiction of a woman’s plight but also the motivation to speak up and grow, indeed beautiful ❤️ do share more of your wonderful work 😊

    Pratima Roy Choudhury
  • Beautifully written! Looking forward to reading more from the author.

    Priya

Leave a comment