By Mohit Sharma
आवाज़ कब चींखते चींखते
एकाएक खामोश हो गई, पता ना चला
असह्य दर्द इतना बढ़ चुका था
कि देह सुन्न होने से, कैसे रह जाती भला
मां.. अब मैं जा रही हूं सबसे दूर
मन में प्रश्नों का गुबार भरकर
जैसी भी रही, जितनी भी रही
पर मैं रही ना कभी भी डरकर
पर ना जाने क्यूं जाते जाते
इस ठंडी सड़क पर डर लग रहा है
कहने को हर ओर खामोश बेहोशी है
फिर भी चित्त जग रहा है
याद है मां जब आखरी बार चोट लगी थी
तब तुझमें छुपकर मैं खूब रोई थी
ना जाने किस मनहूस पहर में
उस रात क्यूं थककर मैं सोई थी
अपने स्त्री होने की परिभाषा परिधि से
काफी हद तक मैं पार गई
मां, मैं उस रात खूब लड़ी लहूलुहान हुई
पर अंत में हार गई
मेरे अस्तित्व को उस क्षण ना जाने
कितनी बार तोड़ा और फैंका गया
जाते वक्त हालत कुछ ऐसी थी
खुद मुझे ही, खुद को ना देखा गया
मन में अब भी गहरा तूफान
और आंखें शून्य शांत बोझिल हैं
मेरे हर सवाल में औरत की अक्षर
मानो बस पीड़ा ही शामिल है
कुछ वक्त पहले, मैं जिस दुनिया में थी
अब जाने वो क्यूं अंजानी लगती है
कहने को कितने अर्थ, बातें विस्तृत हैं वहां
पर अब सब बेमानी लगती हैं
क्रूर बेरहमी, मनों के मैल
और इंसानी हवस को तूने ऐसे कैसे भुलाया है
मिलकर पूछूंगी भगवान से
मुझे बुलाना ही था, तो ऐसे क्यूं बुलाया है?
जानती हूं कि सब फिर जुटेंगे,
देश में फिर से भूली बिसरी आहट होगी
कहीं न्याय, सजा, फांसी की मांग
तो कहीं मेरे चरित्र पे फुसफुसाहट होगी
कुछ दिन बीतते ही लोग
जीवित रहने की होड़ में सब भूल जायेंगे
मेरे जैसे तमाम किस्से कचहरी, थानों में
काग़ज़ात बनकर धूल खायेंगे
धीरे धीरे हैवानियत की दीमक
जो मनों को बेहया खा रही है
नज़र फैला के देखा जाए तो दबे पांव
दूर इंसानियत जा रही है
मां जो तेरे आंचल सा सुकून नज़र है यहां
दर्द में कुछ देर ठहर रो लेती हूं
थक चुकी हूं चलते चलते इस अर्धनिद्रा में
चल अब जी भर के सो लेती हूं।