By Rahul Chaudhary
"मियां मिर्ज़ू "**
नवाब ऑफ़ मलिहाबाद
फ़लक पे आफ़ताब...
और ज़मीं पे थे नवाब...
मियाँ मिर्ज़ू..।
था रश्क ओ रुबाब..
पर याददाश्त थी ख़राब...
मियाँ मिर्ज़ू...
एक रोज़ की ये बात है... तुम देना थोड़ा ध्यान...
तड़के सुबह हो रही थी फ़ज्र की अज़ान...
और जाने लगे मियाँ मिर्ज़ू फ्रूट की दुकान...
रट रहे थे सारी राह...
एक किलो चुंस्सू आम... एक किलो चुंस्सू आम...
एक किलो चुंस्सू आम... एक किलो चुंस्सू आम...
"एक किलो..."
"मियाँ मिर्ज़ू वालेकुम अस्सलाम..." (फ्रूट वाला)
"वालेकुम अस्सलाम?"
"जी वालेकुम अस्सलाम" (फ्रूट वाला)
"चाहिए था एक किलो वालेकुम अस्सलाम?"
फ्रूट वाले बेहया ने घोड़ दिया सारा काम...
और फिर मियाँ मिर्ज़ू सब भूल गए...
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**इसी तरह...**
एक रोज़ मटक के हिरनी चाल...
खिजाब से करके काले बाल...
चल दिए मिर्ज़ू शॉपिंग मॉल...
और मन ही मन में उधेड़बुन...
ये बल्ब लगे कि तारे हैं...
ये फ़र्श भी रौशन अर्श लगे... यहाँ तो पुतले भी पाँव पखारें हैं...
क्या ख़ूब हसीन नज़ारे हैं...
मगर खुदाया माफ़ करे...
ये फ़ासले क्यों बढ़ते जा रहे हैं...?
ये रास्ते क्यों ख़त्म नहीं हो रहे हैं...?
ये सीढ़ियाँ हैं कि जन्नत का सफ़र है?
तभी एक तमाशबीन बोला –
"मियाँ मिर्ज़ू, मियां वो तो एस्केलेटर है...
आप उल्टा चल रहे हैं।"
शर्मसार हो गए हैं... सरेआम
और फिर मियाँ मिर्ज़ू सब भूल गए...
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**इसी तरह...**
एक रोज़ शब-ए-बारात थी...
शाम तक तो उनको याद थी...
और फिर मियाँ मिर्ज़ू सब भूल गए...
लानी थी मिस्री, जायफल...
केवड़ा इत्र गुलाबजल...
लेकिन मियाँ मिर्ज़ू सब भूल गए...
बेगम को चौक ले जाना था...
दुपट्टे पर फ़ाल चढ़ाना था...
बिटिया की बाली चटक गई...
तो सुनार को भी दिखाना था...
और फिर अचानक उनको याद आया...
ना बेगम थीं... ना बेटी थी...
अरे! आज ही तो उनकी मिट्टी थी...
इस बात को अरसा बीत गया...
जब वक़्त नवाब से जीत गया...
और एक वैश्विक महामारी ने...
जब सब कुछ उसका छीन लिया...
पर मिर्ज़ू ने सच क़बूल किए...
लाज़िम थे जितने उसूल किए...
अपनी बेटी और बेगम की क़ब्रों पर जाकर फूल दिए...
कुछ लम्हे उनकी यादों में फिर मिर्ज़ू ने फ़िज़ूल गए...
और फिर
आँसू पोछे, कुरता झाड़ा
सांस भरी ,कॉलर सैट की...
और मिर्ज़ू सब कुछ भूल गए...
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