By Mitul Suhane
कहकहों में सखियाँ हँसने लगी,
बलाईयों में चूड़ियाँ बजने लगी,
ज्वार भाटे में रागिनी बनने लगी,
जब मांगल्या में द्वारका सजने लगी।
छुटपन में छिपकर मैया का,
काजल वो लगती थी
चौंक सयानी सी ठिठक में,
आँचल खोल लजाती थी
उसी वधू का रूप निहारने,
वही दर्पण उतावला है
कैसी होगी दुल्हन भला,
भाई जिसका सावला है?
बहन से प्यारी, सखी से न्यारी,
वैदर्भी नजर उतारती है
मन से उलझे, आत्मा से उजले
पुष्प से केश सवारती है
पर चकाचौंध की आड़ में ,
अँधेरा कहाँ छिप पाता है
सुभद्रा के मुख पर उसे,
अपना अतीत दिख जाता है।
"क्यूँ चन्द्र छपल चंचल चक्षु में,
अचल अविरल अथल अश्रु हैं?
सभी को जिस वियोग का ज्ञान,
ये उनके तो दिखते नहीं
पर मुझे है जिस जोग का भान,
ये मनके तो लगते वही!"
"डमरू पर गिरे, तो मनके नाद सुनायें ,
भाभी, गालों तले ये विषाद ही दिखायें
आस ही अश्रु में घुलकर बह जाए,
तो कौन दाऊ से खुल कर कह पाये?
कि लोक से भिन्न, नीति से बैर
दक्षिणा ठुकराना गुरु को भाता है?
न धर्म धन्य, न धान्य धैर्य,
कौनसा शिष्य कन्या दान में पता है?"
"यहाँ खारा पानी पैर पखारे, गाल नहीं
क्रोध तो मन का घात है, ढाल नहीं
दाऊ के प्रश्न को सहमति तुम्हारी,
तो उपेक्षा कैसी?
जब बलिदानी बनने चली हो,
फ़िर अपेक्षा कैसी?"
"तो क्या आपकी अपेक्षा नहीं की?
आपने प्रतीक्षा नहीं की?
यदि भ्राता न आते उस दिन,
बताओ, क्या रह पाती उनके बिन?"
"प्रेम है, तो प्रतीक्षा थी,
मोह नहीं, जो अपेक्षा रहती
न आते श्री कृष्ण यदि,
मैं दूसरी राधा बन जी लेती
और दोष किसी पर क्यों मढ़ती,
जब प्रयास में मेरे कमी ना थी।
फिर जो भाव न दे साहस कभी
वो सब कुछ होगा, बस प्रेम नहीं।"
कुंठा में अब तक बेबाक थी,
सुभद्रा बैठी आवाक थी
समीक्षा में थे मौन अधर,
युद्धस्व रहा, मन मगर।
तभी भीषण नाद हुआ,
क्षीण सारा संवाद हुआ,
कुरु कुटुंब के सहारे थी,
वर यात्रा अब द्वारे थी।
अहम् अभिमान सर भाल लिए,
मदमस्त हाथी की चाल लिए,
गुणों में केवल कुछ योजन,
वर कहलाया, दुर्योधन।
जयकार पद पद होते थे,
दाऊ भी गद गद होते थे,
चयन पर अपने इतराते थे,
शिष्य निंदा से कतराते थे,
अन्धे के पुत्र पर अन्धी कृपा
फिर हास्य का अवसर क्यूं छोड़े प्रजा?
मंद स्वरों में व्यंग लूटा,
बोले, बिल्ली के भागों छींका टूटा!
कुरु सम्राट और राजमाता का,
यादव वधुऐं करे स्वागत
श्री भीष्म और विदुरजी को,
भाये वृष्णि की आव भगत।
नियति की लीला महान है,
खड़े करबद्ध भगवान हैं,
व्यंग कटाक्ष, लिये वक्र भृकुटी,
नमन हरि का, पाय शकुनि।
प्रत्यक्ष परस्पर मान दिखे,
पर नरसिंह- सियार का नाता है,
अब किसकी याचना, किसकी योजना
समय ही सबका ज्ञाता है।
लग्न मण्डप, यज्ञ वेदी,
वैजंती वैभव साजे है,
हिरनी राजकुमारी वरने,
व्याध युवराज विराजे है।
मंत्र गान और शंख नाद से,
रीति का आरंभ हुआ,
पर कुंचित स्वरों में घुला गर्जन,
जब वधू पूजन में विलम्ब हुआ।
दौड़े दौड़े आये अनुचर,
मानो पीछे पड़ा हो प्रेत कोई,
एक दूजे की बगलें झाँकें,
कैसे खोले भेद कोई?
बलदाऊ कुपित होकर भड़के,
"क्या लगे मुँह को ताले हैं?
या निगल ली है जिह्वा अपनी?
नहीं प्राण किसी को प्यारे है?"
कुछ झिझका, कुछ सहमा सा,
उनमे से एक आगे बढ़ा
सहकर्मी को अपने तरने,
स्वयं क्रोध की भेंट चढ़ा।
"श्रीमान्, दान दे क्षमा हमें,
कोई कमी प्रयास में रही नहीं,
सभा, कक्ष, मंदिर भी खोजे,
पर युवरानी सुभद्रा कहीं नहीं!"
दुर्ग से दृण, भगवान के दाऊ,
सम्भल ही पाते अघात से,
कि अचंभित हुई विवाह स्थली,
द्वारपाल की एक बात से।
"द्वारकाधीश की जय,
सदा बनी रहे!
धूलि का एक धुन्ध उमड़ रहा है,
पाँच अश्वों का स्वर घुमड़ रहा है
वो क्या है, कौन है, पता नहीं
चक्रवात हमारी ओर बढ़ रहा है!"
व्याकुल थे, पर चौंके भी,
यदुवंशी कुछ घबराए
ढांढस बांधे, संकल्प लिये,
हलधर क्रोधित थर्राये।
"तो मेरी बहन को हरने वाला,
अब युद्ध की चाह लाया है?
वो धूर्त दुस्साहसी जानता नहीं,
कि स्वयं काल की राह आया है!
नारायणी सेना सज्ज रहो,
शत्रु का मर्दन करना है
उस दुष्ट का तलवार से अलग,
शीश और गर्दन करना है|"
इतने में कान्हा आगे आये,
बोले, "भैया धैर्य धरें,
अज्ञात पर यूँ वार करके,
धर्म से ना बैर करें।
देखिये, छटती धुन्ध वहां,
लगे, शौर्य में हमसा भारी है
ये शत्रु नहीं, कोई अपना दिखे,
उस रथ पर पताका हमारी है!"
धूमिल धूमिल सी छवि,
धीरे-धीरे स्पष्ट हुई
मानो जलध चीरते रवि की,
आभा और उत्कृष्ट हुई।
सौम्य सरल सुन्दर से नैन,
एक साहसी मुख पर साजे हैं,
महावर मेहंदी से मंढ़े हाथ,
रथ की धुरा को साधे है।
भस्म, वल्कल, शील धरे,
कोई सन्यासी उसमे यात्री है,
हरण समझा जिसका सबने,
वह वधू ही निकली सारथी है!
मुख्यद्वार से कुछ पग दूर,
सहसा रथ वो थम गया,
लहरों में बहता उमंग,
असमंजस में जम गया।
सूर्योदय से स्वर्णिम रथ से,
पड़े धरा पर यूँ दो पाँव,
हों एक ही दिन के पहलु दोनों,
एक धूप और दूजा छाँव।
विनम्र भाव और आदर से,
चले हाथ दोनों जोड़े थे,
प्रणीपात को अस्वीकार किया,
खड़े दाऊ अपना मुंह मोड़े थे।
"अपनी यूँ मनमानी करके,
आशीष लेना व्यर्थ है,
क्रुद्ध नहीं, हताष हूं,
तुम्हारे कृत्य का क्या अर्थ है?"
"कन्यादान करेंगे जिसको,
वो संग हाथ मैं लाई हूं,
आपके अपमान की मंशा नहीं,
केवल वर साथ में लायी हूं।"
"तो मंडप पर सज्ज बैठा,
बतलाओ तुम्हें वो कौन लगे?
वाकदान लिया जिसने हमसे,
वो वर नहीं कोई और दिखे?"
"वाम भाग में खड़ी हूं जिसके,
वही मेरा भविष्य है,
और व्याख्या करते है जिसकी
वह केवल आपका शिष्य है!"
"इतने तिरस्कर पर भी जो,
बैठा है वहां धीर धरे,
वीर कौशल वह मेरा शिष्य,
अचानक ही तुम्हें निम्न लगे?
और निहत्था रथ पर बैठ गया,
ताकी हमसे युद्ध टाल सके,
स्त्री की आड़ में आया ये,
कायर साधु भिन्न लगे?"
दोपहरी में सूर्य ग्रहण की
अवधी मनो अंत हुई,
मूक खड़े साधु की जैसे
जड़ चेतना जीवन्त हुई।
"इतने भी निष्ठुर न हो देव,
आप स्वयं ही महाज्ञानी हैं,
पतन हुआ है सबका जिसने,
स्त्री की बात ना मानी है|
प्रजापति का कटा मस्तक
देता है संदेश यही,
की पालक हों कितने भी दक्ष,
कन्या की इच्छा सर्वोपरी।"
"माना मेरी बहन है देवी,
पर समझना खुद को शंकर नहीं,
क्या सोच अधिकार मांगते हो?
वो रत्न है, कोई कंकर नहीं।
तुम भी तो कुछ बोलो कान्हा,
मझधार में फंसी नाव है,
जग हसाई से रक्षा करो,
कुल के मान पर दांव है!"
"भैया, किसे बचाते हो?
यादव कुल जो हम से है?
आप और मैं तो बस पात्र हैं,
फिर नायक का दंभ कब से है?
वर्षों पूर्व ये बहन हमारी
रक्षक बन कर आई थी,
योगमाया बन प्रकट हुई,
कंस का काल बन छायी थी।
और आप पर की विशेष कृपा,
पौधे की भाँति रोपा था,
माँ रोहिणी का पुत्र बना
देवकी माँ से छोड़ा था।
ऐसी चेतन शक्ति पर,
सन्देह करना सही नहीं,
स्वच्छंद है हमारी बहन,
अबोध बालिका रही नहीं।
तब भी एक पापी से,
आपको छिपाने आई थी
शायद किसी अधर्म से
आज भी बचाने आई है!"
परिस्थिती को अपने जब
हाथों से निकलते देखा,
तो अवसर पा शकुनि ने
शांत पानी में पत्थर फेंका।
"श्रीमान बलराम,
प्रश्न रहा वही का वहीं
क्यों सपरिवार आया मेरा बच्चा गलत?
और बिनबुलया ये संन्यासी सही?
आप अभिभावक हैं युवरानी के
क्या इस धूर्त साधु से ब्याहेंगे?
राजयोग का सद्भाग्य छीन,
बहन को भिक्षा पात्र थमाएंगे?"
हलधर से बोला साधु,
"बड़बोला मुझे ना मानिये,
शांत तो मृत भी रहता है,
आप सच्चा वीर पहचानिये।
ना देखे होंगे किसी ने भी,
तुणीर में इतना बाण है,
न आत्मप्रशंसा में वार करू,
हो संकट में चाहे प्राण है।
स्त्री की आड़ में आया हूं,
ये कलंक मुझे स्वीकार है,
पर योग्यता दिखाने शस्त्र साधूँ,
ये मित्रता पर प्रहार है।
कटु वचन का उत्तर देना
कदाचित मेरा स्वार्थ है,
ये सन्यासी और कोई नहीं
आपके अनुज का सखा पार्थ है!"
रहस्य प्रकट होते ही,
दुर्योधन हक्का बक्का था,
मुस्कते श्री हरि को छोड़,
हर व्यक्ति भौचक्का था!
ऐसी मानहानी से,
दुर्योधन रोष में उबल गया,
पास ही खड़े शेषनाग थे,
फिर भी विष वो उगल गया!
"त्रेता युग में साधु बनकर,
राक्षस हरने आते थे,
अब द्वापर में हमारी स्त्रियाँ,
ये कपटी वरने आते हैं!
ऐसा ही स्वांग रचा कर
पांचाली जीत कर ले गया,
अब फिर से छलने आया है,
क्या स्वाभिमान हमारा मर गया?
जिस कन्या को जीता इसने
उसे भाईयों में बंटवा दिया,
सुभद्रा का होगा हाल यही
यदि इसके भाग्य लिखवा दिया!"
"शब्दों पर वश रखें!"
गरज कर युवरानी बोली,
"अपने प्रेम का अपमान सुने,
नहीं इतनी ये सुकन्या भोली।
समझती हूँ, आप आहत हैं,
पर अपशब्द कहने का अधिकार नहीं,
आर्यपुत्र को लांछित करे,
आप इतने भी गुणकार नहीं।
कोई पांच भागो में क्यों बंटा,
ये आप जाने के पात्र नहीं
पांचाली इनका गौरव है,
केवल पत्नी मात्र नहीं।
वासना नहीं विवश्ता थी,
की एक वधू बनी विभक्ता थी।
चुटकी एक सिन्दूर की,
पर पांच पतियों का नाम था,
तो पांडवो ने भी एक लिया
आंठवा वचन सम्मान का।
जब भूल से टूटा वो वचन,
आर्य निर्दोश थे, सबने जाना
पर मान रहे संबंध का,
तो वनवास का नियम भी माना।
ऐसे पुरुष की अन्य ब्याहता,
बनना मुझे स्वीकार है,
धर्म जिसका आभूषण
और वस्त्र परोपकार है।
कुरु युवराज से संबंध की
सहमती दी युवरानी ने,
पर एक स्त्री सहस न कर पाई,
और शरण मिली मनमानी में।
क्षमाप्रार्थी नहीं हूं मैं,
बस असुविधा पर खेद है,
कदाचित सबने जान लिया,
कि वरण-हरण में क्या भेद है।"
शुभ वाक्य को अनसुना करके,
गधा राग अपना गुनता है,
इतने पर भी ना माना वो,
दुर्योधन अनीति चुनता है।
"मन वचन और कर्म से माना,
तुम वह सम्मानिनी रही नहीं,
और हाँथ आयी वस्तु फिर से छोड़ दे,
ये दुर्योधन ऐसा था ही नहीं!"
वह अशुभ भाव से आगे बढ़ा,
तभी एक हाथ ने ऐसे रोका,
कि सागर तरने की इच्छा है
पर लंगर से हो बाँधी नौका!
"तुम्हारे अवगुण हताशा का रूप हैं,
आज तक यही मानता रहा,
पर करोगे मेरा ज्ञान भी लज्जित,
ये कभी नहीं जानता था।
प्राण दान देता हूँ तुमको,
क्योंकि मुझ पर एक आभार किया,
अब कोई नहीं कहेगा बलराम ने,
दक्षिणा नहीं व्यापार किया!
धर्म संकट से बचाया मुझे
अपने गुरु पर अंतिम कल्याण किया,
कि तुमने स्वयं ही अपने
अयोग्य होने का प्रमाण दिया!
आज मैं गलत सिद्ध हुआ
पर मन से बहुत प्रसन्न हूं,
कि अधर्म करने से बच गया,
और धर्म में पुन: आसन्न हूं।
गणमन्नय जनों से प्रार्थना है,
आशीष सदा बनाऐं रखें,
विचित्र था जो घटित हुआ,
बालक मान अपनाऐं हमें।
खड़े हैं प्रत्याशी दो,
पर एक परिवार का नाता है,
लाई है बहन चुनकर जिसे,
अब वही यादवों का जमाता है!"
श्रृंगार को भी फीका करता,
वधू का मुख अल्हादित था,
मानो विजयी हुऐं हो राघव और,
सिया का मन आनंदित था।
मंडप पर ही बैठे दोनों,
अब नहीं कोई विलंब हुआ,
पुरोहित ने की रीति पूर्ण,
मंत्रों से जिसका आरंभ हुआ।
दोनों हाथों मे हाथ के लिए,
सप्तपदी में चलते थे,
और मामा भांजे दूर खड़े,
हाथ खाली मलते थे।
घायल सिंह सा शांत था,
नहीं भूला ये वृत्तान्त था,
संतोष करने का विकल्प था,
पर दुर्योशन ने चुना संकल्प था।
"इसके प्रतिशोध के बाद ही,
प्राण मैं अपने छोड़ूंगा,
इस विवाह के फल को मैं
अपने पैरों तले रौंदूंगा!"
शकुनि बोला, "धैर्य, भांजे!
छिपा ले अपना जो हाल है,
यादवों के बैर ठीक नहीं,
ये अवश्य उस ग्वाले की चाल है!"
तिरछी आँखों से कृष्ण को देख,
मामाजी बस मुस्काते थे,
व्यवहारिकता मे शब्द बन्धे,
केवल दांत ही पीस पाते थे!
और कपोल-खग की जोड़ी जैसे,
गुटरते कान्हा और बलराम,
"सच सच कहना, छोटे!
ये था ना तुम्हारा ही काम?
संभव नहीं, कि वह अंजान हो,
जो सारे जग का ज्ञाता है,
और उसकी नाक के नीचे से,
कोई ऐसा षडयंत्र कर जाता है?"
ये सुनते ही कान्हा ने,
पलकों को ऐसे जकड़ लिया,
मानो माखन चोरी करते करते,
पीछे से माँ ने पकड़ लिया!
"मैं तो निर्दोष हूँ दाऊ,
मैंने कुछ भी नहीं किया,
बस बहन ने विवाह की भेंट मांगी,
तो मैंने अपना रथ दे दिया!
और आटे में नमक जितना तो
छल करना चलता है,
फिर आपसे नहीं,तो किससे करुं
आप ही तो प्रिया भ्राता हैं!"
भौएँ तानना चाहते थे,
पर दाऊ ठहाके मे फूंट पड़े
फिर से याद आए वो किस्से,
जो बचपन में ही छूट गए|
इस विवाह से जन्मा जो,
वैसा वीर कहीं नहीं
और ऐसे ही भारत के
कल की नींव रखी गई!