मेरी माँ का बचपन – Delhi Poetry Slam

मेरी माँ का बचपन

By Megha Rawat

आज जब एक पुरानी एलबम निकाली
उसमें से कुछ तसवीरें गिर गईं, जो थी मेरी मां ने संभाली
तस्वीरों में था मेरी मां का बचपन
कुल्फ़ी खाती एक छोटी सी लड़की और उसका अल्हड़पन।

तभी सहसा एक ख्याल आया
मैंने तो कभी सोचा ही नहीं
मेरी मां बचपन में कैसी थीं
क्या वो भी खुल के हंसती थीं ?
क्या वो भी सपने देखा करती थीं ?
मैंने तो बस देखा है उन्हें अपनी हंसी दबाए हुए
पुरानी बेल बॉटम पैंट को छुपाते हुए।

सहमी सी मेरी मां भी कभी अल्हड़ सी गुड़िया रही होंगी
अपने मां-बाप की आंखों का वो भी तो तारा रही होंगी।
एक दिन मैंने पूँछ लिया, मां बताओ ना अपने बचपन के बारे में...
वो हिचकिचाईं और बोलीं
अच्छी यादें तो चंद सी हैं
एक बड़ा सा मकान और हम सब...
मां चल बसी थी पहले ही, पिताजी की छांव में पले थे तब
पिताजी ने वादा किया था कि दसवी पास होंगी तो घड़ी दिलाएंगे...
पास तो हो गई थी पर पिता जी फिर कभी ना आए...
ना आई इनाम की वो घड़ी,
ना रहा अमिया वाला घर
रह गए तो बस हम तीन
बिन मां-बाप के भाई बहन...

ये कह कर मां ने अपना चश्मा चढ़ाया और पढ़ने लगीं किताब...
पर मैं निःशब्द थी ,जैसे मेरे अंदर भर आया एक सैलाब
आंखे नम थीं, एक सवाल ने मुझे झकझोरा
क्यों मैंने कभी अपनी मां के संघर्षो को न समझा ?

हम अक्सर मां को चिढ़ाते
मां आप ऐसी क्यों हो?
पढ़ी लिखी हो, फिर भी डरती क्यों हो ?
क्यों इतनी धीमी बात करती हो ?
क्यों अपने ऊपर खर्च करने से घबराती हो ?
मां, आप तो पुराने ज़माने की हो !

आज एहसास हुआ...
मेरे आंसू गिरने से पहले पोछने वाली मेरी मां, ख़ुद भी कितनी बेबस रही होंगी...
अकेली इस दुनिया में, मां-बाप के प्रेम को, वो भी तो कितना तरसी होंगी...

पर ना वो हारीं
ना हटीं
तूफ़ानों का सामना कर
वो रहीं डटी।
वो सहमी नहीं हैं, वो तो एक चट्टान सी हैं
कभी बरगद की छाँव की तरह
कभी सागर की तरह,
मेरी माँ शांत सी हैं।

जो संघर्षो में ना कभी टूटी हैं,
मंदिर जाकर, मैं किसे पूजूँ,
मेरी मां ही मेरी देवी हैं।


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