Mausam ki pehli baarish – Delhi Poetry Slam

Mausam ki pehli baarish

By Gursimran Kaur

मौसम की पहली बारिश

काश मैं मौसम की पहली बारिश बन जाती
एक बादल की गोद में बैठ पूरी दुनिया को देख आती

उढ़ती बेफ़िकर इन बादलों की बस्ती में
ख़ुदा की कुदरत का बेइंतेहा लुत्फ़ उठाती

कोई मेरा इंतज़ार करता ऊपर आसमान को देख
इतराती अपनी क़िस्मत पर
गिरकर माथे पर उसके एक माँ की तरह सहला जाती

सूखी धरती जो गहराईयों में हमारे लिए पानी को समेटे रहती है
मैं उसके बदन को छूकर , उसे कुछ राहत तो दिलाती

मेरा वजूद मिट जाता उस मिट्टी से मिलकर
पर ग़म नहीं होता जब मैं उसकी सौंधी सी ख़ुशबू बन जाती

गिर जाती जो किसी खूबसूरत पहाड़ के ऊपर बर्फ़ बनकर
उसी बुलंद पहाड़ का हिस्सा बन जाती

सूरज की किरणें ग़ुरूर तोड़ देती मेरा और मैं बनके झरना फिर से ज़मीन से जुड़ जाती

मोर मेरी आहट को सुनकर जब पंख खोल देते
मैं भी उनके साथ जंगल में कुछ देर नाच आती

किसानों को तो मेरा इंतज़ार रहता है हमेशा
नुक़सान होने ना देती कभी अन्नदाता का
हर बीज को हरी भरी फसल बना आती

मोहब्बत की दास्तान तो पहली बारिश के बिना अधूरी ही रहती है
मैं छूकर चेहरे को महबूब के उसके हुस्न में चार चाँद लगाती

दिल टूटने के बाद जो छुप कर आँसू बहाता
मैं उस उदास दिल के आँसूओं को अपनी बूदों से छुपाती

गिरती जो मैं कभी सागर की गहरायी में
कभी मोती बन जाती बेशक़ीमत और
कभी भाफ बनकर फिर से बादल बन जाती

खोकर अपने आप को बादलों के दरमियान
काश मैं फिर से मौसम की पहली बारिश बन जाती।


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