कागज़ का मुसाफ़िर – Delhi Poetry Slam

कागज़ का मुसाफ़िर

By Manith Bhatewara

इंसान उसे हर वैसे देखता
जैसे देखना चाहता था
लेकिन वो तो एक मुसाफिर था
बस चलते रहना चाहता था।

हाथ में उसके स्याही थी
शब्दों का वो ज्ञानी था
मांगा उसने कभी ना ये सब
वो बस चलना चाहता था

तौफा था या शाप था उसको
मालूम ना उसको ये भी था
वो तो बस मुसाफिर था
जो चलते रहना चाहता था

गमों में बीती शामें थी
दर्द से गहरा नाता था
स्याही उसकी कभी ना रुकती
वो कागज पे चिल्लाता था..

चीख में उसकी दर्द नहीं था
वो तो बस मुस्काता था
कलेजा अपना इनाम में देकर,
वो बास चलना चाहता था

दिल में उसके जो भी होता
महसूस बाद में करता था
पहले एक टक निहार कर
कागज़ पे उतारा करता था

दर्द बढ़ा जब हद से पार
टूटा सब्र का बाँध था
परेशानी उसके चित्त नहीं थी
वो तो बस हैरान था!

आखिर इतना दर्द भी होगा!
खुदसे पूछा करता था
लिखना फिर भी कभी ना छोड़ा
वो भीड में क्योंकि एक था

भगवान से पूछता वो ही क्यूं?
काश वो इतना दुख ना पाता
जो उसको अगर ये शाप ना मिलता
कौशल उसका बहार ना आता

समझना उसको मुश्किल है ये भी सिर्फ एक कोशिश है
वो कर्म से जीना चाहता था...
...इंसान उसे हर वैसे देखता
जैसा देखना चाहता था,
पर वो तो एक राहगीर था
राह पे चलते रहता था

वो राह पे चलता रहता था....


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