माटी का लोंदा – Delhi Poetry Slam

माटी का लोंदा

By Manoj Mittal

माटी का लोंदा था वो,
भर अंजुरी में।
स्नेह से अभिसिंचित कर
नाज़ुक उंगलियों ने तराशा,
मन की तपिश में पकाया,
आँखों में बो दिए कुछ सलोने सपने,
और
प्यार के रंगों से सींच दिए प्राण।

एक अनजान आहट सी हुई,
अचानक आँखें टिमटिमाने लगीं,
चेहरा मुस्कुराने लगा,
गाल सुर्ख हो उठे,
खामोश नब्ज़ में हरकत हुई,
श्वासों की गति मुखर हो उठी,
हृदय स्पंदित हो उठा,
और
हाथों में भी — स्पर्श की बैचैनी थी।

अचानक सहम गई — दोपहर,
घिरा घोर अंधियारा,
उठा झंझावात,
गरजे गहरे काले बादल,
और
फूट पड़ा आसमान।

गीला हो बिखर गया वो,
आख़िर
माटी का लोंदा ही तो था वो।


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