मुस्कुराती पतंग – Delhi Poetry Slam

मुस्कुराती पतंग

By Mamta Hooda


एक पतंगिया पतंग उड़ाए,
पतंग लहराए, और खूब इतराए।
आसमान में हिलोरें खाए,
कभी ऊपर जाए, कभी नीचे आए —
देखो पतंग, उड़ती जाए... उड़ती जाए।

तभी एक और पतंगिया आया और बोला —
"भइया, हद से ज़्यादा जो ढील दी जाए,
तो कहीं पतंग फिसल न जाए।"

पहला पतंगिया थोड़ा मुस्कुराए,
फिर सोचे... थोड़ा घबराए।
न जाने क्यों डोर
खींचत जाए... खींचत जाए।

पतंग फड़फड़ाए, ज़ोर से चिल्लाए —
"काहे मोहे ढील न दी जाए?
आसमान को छूना चाहे,
"मैं ना कोने में पड़ी रहूंगी।
मैं किस काम की —
जो नहीं उड़ूँगी?"

पर पतंगिया सुन न पाए,
बस डोरिया खींचत जाए... खींचत जाए।

पतंग से आसमां छूट रहा था,
सब कुछ उसका लूट रहा था।
मारा झटका — छूटी डोरिया,
चली सपनों को पाने —
तेज़ हवा से लड़ती जाए,
कभी ऊपर जाए, कभी नीचे आए।
वाह! पतंग उड़ती जाए... उड़ती जाए।

फिर एक दिन पतंग मुझे मिली —
कांटों में थी घायल पड़ी।
मैं थी उस पर हंस रही —
"पतंगिया से छूटी तो बर्बाद हुई!"
लेकिन पतंग... मुस्कुरा रही,
कांटों में भी इठला रही।

देखो पतंग उड़ती जाए —
वो घायल, वो अकेली,
देखो कैसे...
मुस्कुराती जाए, मुस्कुराती जाए।

फिर मुझे अफ़सोस हुआ —
क्यों मैं कोने में पड़ी रही?
न गिरी, न घायल हुई,
ना आसमां देखा मैंने।
ज़िंदगी यूंही गुज़ार दी..
वो मैं थी जो बर्बाद हुई।


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