मेरी बदसूरत बत्तख – Delhi Poetry Slam

मेरी बदसूरत बत्तख

By Mahevash Shaikh

बहुत समय पहले की बात है,
वो कौन-सा वक़्त था, याद नहीं,
पर याद है मुझे वो एक बत्तख,
उसका नाम क्या था — यह याद नहीं...

एक जंगल में, जहाँ सब ‘जंगल’ थे,
और उसकी किस्मत उसे वहीं ले चली,
साफ़-सफ़ेद बत्तखों के झुंड में,
मेरी भूरे रंग की बत्तख बस जा फँसी।

वो सबकी नज़रों में चुभती थी,
जो थोड़ी टेढ़ी, नुकीली चोंच थी उसकी,
पैरों की पकड़ मजबूत,
पर रंगत थोड़ी फीकी थी उसकी।

वक़्त बुरा था या किस्मत,
पर जिनके साथ वो रहती थी,
हर बार उस पर बरसते थे,
कभी मनहूस, कभी बदकिस्मत उसे कहते थे।

अकेली और मायूस हर पल,
वो फूट-फूट कर रोती थी,
"इस जंगल में कोई मुझ-सा क्यों नहीं?"
हर बार खुद से पूछती थी।

फिर उनसे डर-डर के,
वो अपने पंख खोलने से डरती थी,
उन तानों से, उन बातों से बचने के लिए,
वो धूप में निकलने से डरती थी।

फिर खुद से तंग आकर,
वो कूद पड़ी एक पहाड़ी से,
आँखें खुलीं तो जाना —
वो थी हवा की सवारी में...

वो पंख ना थे ज़मीन की धूल के लिए
वो पंख थे आसमान में उड़ने के लिए…

ये जान कर मेरी बत्तख कुछ यूँ तैयार थी,
उसकी आँखों की चमक ही उसका श्रृंगार बनी।

और उसकी उड़ान देख कर लोगों ने जाना,
उसके परों में छुपा था — आसमान की सैर का फ़साना।

फिर जब ज़मीन पर वो लौटी,
सबकी आँखों में आँखें डालकर वो चलती,
लोगों की बातों से बेफ़िक्र,
खुद को जानती, खुद को पहचानती,
मेरी बत्तख अब किसी से नहीं डरती।


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