By Lokesh Gulyani

ख़्याल बहुत तेज़ी से उतर रहे हैं पर वे टिक नहीं रहे। मेरे भी मन में उन्हें लेकर घबराहट है। मैं उन्हें लिखकर रोक लेना चाहता हूँ। पर डर है कि मैं उन्हें बिगाड़ दूँगा। इस डर से मैं दूर हट जाता हूँ और निकल जाता हूँ कमरे से बाहर। बाहर की दुनियाँ में लोगों पर लोग चढ़े हुए हैं, उन पर अपने ख़्यालों का बोझ पहले से है। कुछ लोग ख़्यालों को दबाना सीख चुके हैं, वे लोग उदास हैं। कुछ ने अभी नहीं सीखा है, वे जल्दी में हैं, उन्हें कहीं उनके ख़याल से भी पहले पहुंचना है।
मैं नीम के पेड़ नीचे बनी चाय की थड़ी पर पहुँचता हूँ। चाय वाले का ख़्याल है, मुझे चाय पीनी चाहिए। मेरा ख़्याल है मुझे भगोनी में उबलती चाय सा उबाल मेरी रगों में चाहिए। चाय वाले के और मेरे ख़्याल नहीं मिलते। मन ही मन वो मुझे हिकारत भरी नज़रों से देखता है, ऐसा मेरा मन कहता है। अदरक कूटते हुए उसकी हर चोट मेरी कनपटी पर पड़ रही है। उसे मालूम है कि मैं बस आधा चम्मच शक्कर ही लूँगा, फिर भी वो पूछेगा, क्योंकि इंसान के ख़्यालात हर रोज़ बदल जाते हैं। कल जिस मैं को मैं यहाँ लेकर आया था, उसे वो आज नहीं जानता है।
एक पिल्ला कुछ दूरी पर अधलेटा पड़ा जाने क्या सोच रहा है। क्या वो एक बिस्किट की ख़ातिर अपनी सोच से समझौता करेगा? मेरे हाथ में बिस्किट होना मेरी ताकत है। इस भागती सड़क पर कितने लोग बिस्किटों के पीछे दौड़ रहे हैं। जो बिस्किट लपकता है, उसके हाथ में भी बिस्किट है। मैंने अपनी नज़र पिल्ले से हटा ली है, अपने मन में, मैं उसके बगल में लेटा दुनियाँ को देखने की कोशिश कर रहा हूँ।
चाय वाले ने सुबह की पहली चाय सड़क पर भेंट चढ़ा दी है, दूसरी मेरे सामने है। मेरी आँखों में आग़ है, जो सिगरेट जलाने के बाद बुझ जाती है। पहली चाय को सड़क की ढलान पर लुढ़कने से पहले वो पिल्ला चट कर गया है, उसकी फ़ुर्ती मुझे शर्मिंदा कर रही है। मुझे किसी बात की प्यास क्यों नहीं है। क्यों नहीं मैं सबसे पहले सुबह की पहली किरण चाट लेता और कर लेता पूरा दिन अपने नाम। फिर ख़्याल भी मेरे और समझौता भी मेरा, बिस्किट भी मेरा, मुँह भी मेरा। ये ख़्याल अच्छा है, इस ख़्याल को रुक जाना चाहिए।