By Laljee Verma
यहाँ और क्या मिलेगा तुम्हें
कितबों के सिवा!
किताबें, जिनके पन्ने बिखरे पड़े हैं
कुछ मूक-बधिर कुछ मुखर-वाचाल.
कहने की भी एक विधा होती है
किताबों से पूछो इन्हें सब पता है!
हाँ, इस कोने में तुम्हें मिल जायेंगें
अहंकार, और स्वाभिमान, जिन्हें
शीशे की दीवारों में चुन दिया गया है,
मिट्टी-गारे से बंद कर दिया है, मैनें!
उस कोने में देखो,
वहां अभिमान पड़ा है, आकुल है
कुलांचे मार रहा है, जंगला तोड़
बाहर निकलने, पर लोहे की सलाखें
ऐसी जमा दी है मैनें कि तोड़ना मुश्किल है!
वहां फर्श पर देखो,
कुछ सुगबुगा रहा है, मिट्टी की
परत को हटाकर निकलने,
उँगलियों के पोर से थोडा कुरेदो
स्मृतियाँ निकल खड़ी हो जायेंगी
कुछ खट्टी, कुछ मीठी,
कुछ कड़वी, तो कुछ रसभरी,
कुछ सपने भी निकलेंगें वहाँ से
जिन्हें संवरने नहीं दिया गया
आयने की तरह, मुंह चिढ़ाती!
और वहां देखो सीताफल के बीजों की तरह
अभिलाषाएं कुंडली मारे बैठी हैं,
उसे तोड़ो, और देखो,
एक-एक बीज बाहर निकल आना चाहती हैं,
मांसल परत तोडकर.
दीवारों के कान होते हैं, कहा जाता है,
तो फिर कहानियां भी होंगीं,
कुछ आज के कुछ कल के, कुछ
हमारे-तुम्हारे आने से पहले के.
दीवारों का चूना हटाओ
और झांक कर देखो, कितनी
दिलकश रुबाईयां लिख संजोया है किसी ने!
और जिज्ञासा, जो सोया पड़ा है
पसरा है तुम्हारे ही पलंग पर,
उसे जगाओ और खेलो आँख-मिचौली उसके संग!
और पूछो, ‘मेरी पकड़ में क्यों आते नहीं तुम?
क्यों भागते रहते हो, कभी पकड़ भी पाता हूँ,
तो बार-बार छूट जाते हो?’
तुम जानते हो जिज्ञासा क्या कहेगा,
‘मेरी तो फितरत यही है,
पानी की तरह, अंजुली में संग्रह
तो कर सकते हो पर उँगलियों
के बीच पकड़ने की कोशिश की
तो फ़िसल जाऊंगा तुम्हारी पकड से!’