By Kumar Vivek
इन सपनों के गलियारों में
,
जब जब पीपल की छाँव मिली
सूरज उतरा और शाम ढली
यहाँ मैदानों की मिट्टी में,
जब जब बच्चों के पाँव सने,
कभी किसी पुरानी चिट्ठी में,
लिखा - मिटा पिनकोड दिखे
कसम से मैं सच कहता हूँ,
मेरे गाँव को हिचकी आती है।
जब जब काग़ज़ की नाव के संग,
मेरा बालपन उन संग चले
उस पवन धरा से दूर कहीं,
जब जब गंगा की बात हुई
जीवन की आपा-धापी में,
कहीं माटी का मटका और खाट दिखी
काली अंधियारी रातों में,
जब सप्तऋषि पर नज़र गई
कभी कहीं किसी त्योहारों में,
जब लगा हुआ मेला देखा
मेले में फुकना और मदारी देख,
जब माटी के खिलौनों का मोल किया
कसम से मैं सच कहता हूँ,
मेरे गाँव को हिचकी आती है।
जब भी मेरे जागने से पहले,
सूरज सर पर चढ़ जाता है,
आते-जाते मैं कभी कहीं
साइकिल की अगली डंडी पर बच्चों को बैठा पाता हूँ
जब भी खुद की ही गलती पर,
खुद से खुद को समझाता हूँ।
जब जब मेहनत मज़दूरी कर,
अपना वेतन मैं पाता हूँ
जब भी अपने इस घर पे मैं
कभी देर रात को लौटूँ तो
कभी कहीं पे मैं कुछ बोलूँ तो
खुद को उसूलों पर तौलूँ तो
कसम से मैं सच कहता हूँ
,
पापा को हिचकी आती है।
गंगाजल की छीटों की जगह,
घड़ी की घंटी उठाती है
मेरे छोटे से इस कमरे में,
तुलसी पर नज़र जो जाती है
गाहे-बगाहे कभी कहीं
त्याग प्रतिष्ठा लिखूँ पढ़ूँ
चूल्हों पर रोटी सेंकते-सेंकते
जब भी मेरे ये हाथ जले
मैं परदेसी बन बैठा हूँ
मुझको हर पल तेरी कमी खले
तूने कोशिश करना सिखलाया है
पर बड़ा कठिन ये काम हुआ
तुझको शब्दों में बाँध सकूँ
इस कोशिश में नाकाम हुआ
कितने अक्षर… कितनी बातें…
अब कितने और मैं छंद लिखूँ
बस इतना बता दे कि जब जब मैं
उठूँ बैठूँ जागूँ सोऊँ
जब जब मैं कुछ भी खाता हूँ
या
बिन खाए सो जाता हूँ
तुझे कसम मेरी, तू सच कह दे
माँ… तुझको हिचकी आती है?