By Kumar Shamil
ये लूट से बने महल में रौशनी का दौर है,
ये खुद का नाश कर रही, सियासतों का दौर है।
तो इंकलाब की तरफ, सभी के आंख गौर हैं,
उठो चलो की आज फिर, बगावतों का दौर है।
जो सर उठा रहे उन्हें, निकालते हैं काम से।
लहू जुटा रहे उन्हें गिरा रहे हैं नाम से,
हर एक हरकतों पे अब नजर है आज तेज तर,
महफूजियत के नाम पर, घरों को आज भेद कर।
शहर शहर में हर जगह, बनी है कितनी पंक्तियां,
हर एक सुबह हताश मन से भर रही सवारियां,
मैं भीड़ में दबा हुआ, निराश हूं, सवाल हूं,
जो काफिलों को रोककर उठे, वही बवाल हूं।
धुंआ-धुंआ सा है सड़क, भविष्य भी उसी तरह,
है गिनतियां न मानती, आबादियां उसी तरह।
शहर की बढ़ती सरहदें मैं रोकता फ़राज़ हूं,
तुम भूल गए मैं इस चमन पे आज भी निसार हूं।
हर एक जगह चुनौतियों से भीड़ रही ये शाम है,
विलायतों की ओर अब, अवाम की उड़ान है,
है मुल्क की समझ नहीं, उसी को बस गुमान है,
बता रहा है लोकतंत्र का रूप ये महान है।
ये कुर्सियों पे बैठकर भी खेलने का दौर है,
दशकों से हो रहे पतन को झेलने का दौर है।
नहीं है कोई काम का, ये सोचने का दौर है।
बगैर मन से दी गई ये जन मतों का दौर है।
तो इंकलाब की तरफ, सभी के आंख गौर हैं,
उठो चलो की आज फिर, बगावतों का दौर है।
उठो चलो की आज फिर, बगावतों का दौर है।