By Kuhu Singh
एक दिन थी मैं अपने एकाकीपन में लीन,
निष्प्रभ रात की चाँदनी के थी मैं अधीन।
मेरे तन और मन को घेर कर खड़ा है एक अनूठा तिमिर,
और इस अंधकार में चंद्रिका ही थी मेरी राहगीर।
निश्चल से दिल में था एक ही सवाल,
आखिर कौन है ये सबका भगवान?
किसने किया है मानव जाति का उद्धार,
और किसने प्रदान किया यह आचार-विचार?
कौन है वो जिसने जीवन की दुल्हन को यौवन का अलंकार है पहनाया,
किसने स्त्री की आँखों में सौंदर्य का कजरा है सजाया?
किसने पुरुष को शरीर से बलवान है बनाया,
और किसने उसे समाज में सत्कार है दिलाया?
बेटे थे कुलदीपक बड़े,
आज इन्होंने भरे बलात्कार से घड़े।
आत्मजा थी भगवती का प्रतिरूप,
माँ की कोख में ही खोया उसने अपना वजूद।
बेटी ने बढ़ाया खानदान का नाम,
नंदन ने पाया घरेलू हिंसा में सम्मान।
अब भी है मेरा वही सवाल,
किसने दिया इन्हें यह अधिकार?
जब-जब नारी पर बरसी घनघोर वेदना की मेघना,
और की उसने सबसे सहायता की निवेदन।
कहाँ खो गई थी हमारी अस्मिता और चेतना?
क्यों नहीं, आखिर क्यों नहीं ले पायी कोई स्त्री रानी लक्ष्मी से प्रेरणा?
अंत में मैंने एक बार फिर अपना प्रश्न है दोहराया,
आखिर किसने मर्द को बाघ है बनाया?
और क्या किसी ने इसके मस्तिष्क में आदर का बीज नहीं उपजाया?
क्या यही है हमारी अंतरात्मा?
और क्या ये सारे अत्याचार नहीं देखता तुम्हारा परमात्मा?
अब भी समय है, डालो अपनी बुद्धि पर ज़ोर,
मत समझो किसी भी स्त्री को अबला और कमज़ोर।
हे ईश्वर! तुमने ही दिया है सबको जीवन यह अनमोल,
समझाओ हर पुरुष को समरूपता का असली मोल,
और चखाओ हर भारतीय को सम्मान का अमृत सम घोल।।