By Dr. Krupal Gamit
मेरे दिल के भीतर मचा है शोर।
धीरे-धीरे बन रही हूँ मैं कोई और।।
तलाश रही हूँ जब आए एक भोर,
जब मन पर ना हो किसी का ज़ोर।।
कि अब ये मन भर चुका है,
पर ग़मों का कारवां ना रुका है।।
कि अब ख़ुद पर ही हँसती,
जब फ़रेबों के सिलसिलों में हूँ फँसती।।
माना कि ये ज़िंदगी है एक पहेली,
कभी बैरी है तो कभी सहेली।।
शिकायत भी क्या करें गैरों से,
ख़ुद को ही समेट लिया टुकड़ों से।।