By KM Vidya
यह कविता सिर्फ वृक्ष द्वारा दिए गए समर्पण को ही नहीं दर्शाती बल्कि वृक्ष ही की भांति उस मनुज या मानुष की स्थिति और व्यक्तित्व का वर्णन करती है जो अपना सर्वस्व देकर आस –पास के जगत को सींचता,और प्रेम देता है, लेकिन उसको कभी भी वह अधिकार,प्रेम , व समर्पण नहीं मिला जिसकी उसे सबसे ज्यादा जरूरत है। कविता में उसकी भावनाएं भी व्यक्त की है।
सबने पनाह ली उस दरख़्त की,
ना देखा उसको धूप लगी है क्या?
चलते –चलते थक मुसाफ़िर ठहरे,
दरख़्त से ना पूछा कब से ठहरे पड़े यहां?
झुक गयीं टहनियां उसकी समेटते–समेटते सबको
ना कहा किसी ने सहारा दूँ, तुमको मेरी जरूरत है
क्या?
सिखा रहा सलीका जीने का वो सबको,
उससे ना पूछा तुम खुद मर्जी से यहाँ खड़े हो क्या?
किनारों पर खड़े ख़ामोश सड़कों के देता हमराही।
का पैगाम वो,
उससे ना जाना तुम्हारी जड़ों को भी पानी की जरूरत
है क्या?
रिश्ता सबसे उसका धूप छाँव उसके पास रही
कमज़ोर पड़ा दरख़्त कभी तो उसकी किसी को
फिक्र नहीं।
आशियाना सजाता हर पंछी उसकी भुजाओं के दम
पर,
ना झाँका उसके अंतर्मन में,हुए प्रहारों से ,उन घावों।
को मरहम की जरूरत है क्या?
सोता थक हर इंसान छाँव में उसकी,
ना समझा सुकून से नींद कभी उसने ली है क्या?
आया समय वो जब दरख़्त में जान बची नहीं ,
भाव देने का अब भी उसका गया नहीं,
कट गया जड़ों तक अपनी छाँव अब न रही ,
मिल गया मिट्टी में पार्थिव शरीर उसका ,
छोड़ गया पहचान अपनी ।
ना समझा जाते –जाते भी किसी ने
उसका जीवन सरल था क्या?
सबने पनाह ली थी उस दरख़्त की,
ना देखा उसको धूप लगी थी क्या?