By Kislay Mishra
मैं अक्सर चढ़ता हूँ वैशाली से।
भीड़ कम होती है, सीटें अक्सर ख़ाली।
शहर के मिज़ाज में अब आदत सी बन गई है —
कानों में ईयरफ़ोन, नज़रें खिड़की के बाहर,
और मन, कहीं भी नहीं।
पर आनंद विहार...
यहाँ शहर अचानक जागता है।
खिड़की से दिखता है रेलवे स्टेशन।
सैकड़ों चेहरों की धुंधली भीड़,
और सपनों से लदी ट्रेनें —
जो घर से शहर नहीं,
मिट्टी से कंक्रीट की बेगानी यात्रा पर थीं।
मेट्रो का दरवाज़ा खुलते ही,
ट्रॉली की चरमराहट, थैलियों का शोर,
और वो थकान,
जो स्लीपर डिब्बों से उतर कर आई हो,
सब एक साथ भीतर उमड़ पड़ते हैं।
यहीं चढ़ा वो आदमी —
दो दिन की थकान उसके कंधों से टपकती थी।
हाथ में पुराना झोला,
जिसमें बंधा था उसका पूरा गाँव।
सांझ के धुएँ सा चेहरा,
जिस पर अब भी सफ़र की गर्द जमी थी।
आँखों में अजीब-सा ठहराव,
नज़रें — वैसी नहीं, जैसी यहाँ के लोग मिलाते हैं।
फटी चप्पलों में चाल,
मानो माफ़ी माँगती हो अपनी मौजूदगी की।
सामने की चार खाली सीटें छोड़,
वो कोने के फ़र्श पर बैठा,
जहाँ साफ़ लिखा था: "फ़र्श पर बैठना मना है"।
वृद्ध, अपंग और महिला आरक्षित सीटों से दूर,
जैसे उस फ़र्श पर अब भी उसका कुछ हक़ बचा हो।
वो अनायास नहीं बैठा था ज़मीन पर —
वो ज़मीन से जन्मा था, उसी की ओर लौट रहा था।
जबकि मेट्रो की सीटें,
साफ़ स्टील की चमक में,
उसे पराया बना रही थीं।
दिल्ली मेट्रो की आँखें और कान बने नागरिक,
फिलहाल अंधे और बहरे बने,
उसे लावारिस ट्रांजिस्टर बम की भांति उपेक्षित करते थे।
उसके गंदे कुर्ते पर फिसलती नज़रें,
और बगल में सरकते जिस्म —
जिन्हें वह समझ नहीं पाया,
पर महसूस ज़रूर कर गया।
फ़र्श पर बैठना मना है।
मगर वो बैठा रहा —
भीड़ के बीच, भीड़ से बहुत दूर।
बार-बार अपनी झोली को खींचता,
जैसे डरता हो
कहीं उसके सपनों की गठरी,
इस चमचमाते डिब्बे पर बोझ न बन जाए।
हर स्टॉप पर बदलती भीड़ के साथ,
वो थोड़ा और सिकुड़ जाता।
मानो मेट्रो के मौन ने
उसे धीरे-धीरे समेट लिया हो।
वो शहर को नहीं जानता था,
और शहर ने भी उसे जानने की ज़हमत नहीं उठाई।
यहाँ अजनबी, अक्सर कोनों में रह जाते हैं।
वो नहीं जानता था जमनापार की गलियाँ,
जहाँ से हवा खांसती हुई गुजरती है।
न ही राजीव चौक स्टेशन की
महाभारत में भिड़ते बाणों-सी भीड़।
न ही मालूम था उस अंधेरे के बारे में,
जो मंडी हाउस स्टेशन से पहले
समेट लेता है सब कुछ,
जहाँ शायद वो भी
खुद की खोज में खो जाए।
मैं और वो बस देखते रहे —
मेट्रो की सीटों पर टिके शासक,
और उन खड़े अभिलाषियों को,
जो उन्हीं कुर्सियों पर अपनी निगाहें गड़ाए थे।
कंधे भिड़ते रहे, साँसें सिमटती रहीं,
पर वो वहीं था —
मेट्रो में पिचकते हुए,
शहर का पहला स्वाद चखता हुआ।
अपने गंतव्य पर पहुँचकर,
मैंने एक आख़िरी बार उसे देखा।
मेट्रो उसे ढोती आगे भी ले जाएगी।
मेट्रो नादान है, दरवाज़े खोल देगी।
मगर ये शहर?
शायद नहीं।