By Kavya Gupta

आज़ादी
प्रस्तुत कविता 'आज़ादी', नारी और पुरुष प्रधान समाज के बीच के संघर्षों को प्रकाशित करती है। कविता में तीन पात्र हैं-
1.एक नारी जो आज़ादी से प्रेम करती है
2.उसकी मित्र
3.पुरुष प्रधान समाज (सागर के रूप में)
एक बार वो मौसम आया था, संग अपने सावन लाया था,
मैं घर की चौखट भूल गयी, बरसात ने मुझे बुलाया था।
मुझपर बूँदे भी गिर आयीं, आज़ादी की खुशबू लायीं,
जिसको चाहा था सपनों में, बनकर उसका संदेशा आयीं॥
मेरे मन की बंजर मिट्टी को, उसकी जड़ ने है बाँध लिया,
अब प्रेम झरोखों में देखो, कैसे खिल जाती हैं कलियाँ।
अबतक तो बस नैन मिले, ले निकल पड़ी हूँ मिलने को,
अशोक वाटिका दूर नहीं अब अवधपुरी से चलने को॥
तुझको क्या लगता है पगली ये क्षणभर में हो जाएगा?
आजादी से मिलने का, सपना मुमकिन हो पाएगा?
दुनिया रूपी इस सागर की ताकत का दर्शन करवादूँ,
हम तो बस नारी है यारा, ये भी तुझको बतलादूँ॥
घनघोर तिमिर को रौशन करने, चली अकेली नारी है,
वो नारी जो युगों-युगों से अपनों से ही हारी है।
इस दुनिया का बोल हूँ मैं, तू तो बस एक छोरी है,
गर चाँद बनी, पछताएगी, यहाँ सब लोग चकोरी हैं॥
क्या नाप सकेगी देख मुझे, फौलादी लहरों वाला हूँ मैं,
एक लड़की क्या कर लेगी मेरा, असीम तेज़ वाला हूँ मैं।
अपने तन को देख ज़रा, आजा मुझमें मिल जा मृगनयनी,
कहाँ चली उसको पाने और क्यूँ उसकी तू प्रीत बनी॥
मुझको मेरे प्रियवर से, सीता को उसके रघुवर से,
क्या मिलने का अधिकार नहीं मीरा को गिरिधर नागर से?
क्यूँ अग्नि परीक्षा सीता की बस, द्रौपदी का चीरहरण क्यूँ है?
पूजित थी ना मैं फिर क्यूँ मेरा ही मान समर में है?
जो दूषित करदूँ नम्र भाव तो फिर पीछे पछताएगा,
गांधी को देखा तूने, आज़ाद उमड़ अब आएगा।
लहर-लहर तू डोल उठेगा, तेरा तल कण- कण काँपेगा,
मरी हुई आँखों में भी जब विकराल बवंडर जागेगा॥
एक लड़की में इतनी हिम्मत जो वरुण रूप को धमकाती,
जा नहीं मिलेगा मार्ग तुझे, देखूँ कैसे रांझा को पाती।
दर-दर भटकेगी लड़की, तू एकाकी मर जाएगी,
मान मेरी, स्वीकार मुझे, तू विघ्नमुक्त हो जाएगी॥
है कौन लोग जो बाधा बनते?
राम-सिया के मिलने में, सागर सी हठ क्यूँ ठाना करते?
तीन दिवस तो बीत गये, शक्ति का ज्वर चढ़ जाएगा,
कोई राह देखता है मेरी, अब धनुष-बाण उठ जाएगा॥
जो नहीं मानता जग अब भी, तो छोड़ प्रिये मुझको जाने दे,
जिस पौरुष का अभिमानी वो, उसका चूरा कर आने दे।
कैलाशी का विष बनकर मैं इसके रक्त में घुल जाऊँगी,
क्षणभर में दुर्गा बनकर फ़िर खुदको ही पी जाऊँगी ॥
अब तक तो नरगिस बनकर, जन-जन का सम्मान किया,
सबसे मैंने प्रेम किया, सबको ही अपना मान लिया।
संताप छू चुका लेकिन सीमा, अब जो एक शब्द बोला,
तेरी जिह्वा पर बैठ जाऊँगी, बनकर के भीषण शोला॥
गर तू सरमाया धरती का, तो मैं नदियाँ का हूँ पानी,
ले छोड़ दिया तुझमें बहना, अब तस्वीर दिखा अपनी।
जब तक खुद को लोहा समझा, तेरी बुद्धि थी जंग बनी,
ले कोहिनूर में बदल गयी, इस क्षण औकात दिखा अपनी॥
जीवन सूख जाने दो भगवन, रह जाने दो सृष्टि आधी,
कामवेग को सहने दो अब अंधकार की आंधी ।
भीख नहीं माँगूंगी अब, एक बार फिर कहती हूँ,
नर्तन तो करते देखा है, मैं मर्दन भी कर सकती हूँ॥
अब क्यूँ सिकुड़ रहा प्यारे, पौरुष-प्रताप प्रदर्शित कर,
जो भस्म हो गयी हिम्मत सारी, तो सन्मार्ग निरूपित कर॥
यदि है विनाश से बचना चाहता, स्त्री सम्मान किया करना,
देवत्व यदि फिर पाना हो, अर्धनारीश्वर बना करना ॥
और नारी दोष तुम्हारा भी, जीवन में प्रतिपल घुटती हो,
तुम्हें अर्थ ज्ञात नहीं खुदका ही तो फिर क्यूँ शोक मनाती हो?
ये समर ख़त्म हो जायेगा, तुम उठो और प्रतिकार करो,
हक के खातिर लड़ना सीखो, पहले खुद का सम्मान करो॥
तुम अधरों पर छाईं कवियों के, मधुर-मधुर संगीत बनीं,
खुदके जीवन की कविता को लेकिन लिखना क्यूँ भूल गयीं?
कमज़ोर समझकर खुदको तुमने स्वतः घोर अपराध किया,
गांडीव उठाया नहीं वरन् स्वाधीन चाल को बाँध लिया ॥
बस से फेंका जब इसने, तू एक हूँकार लगाती नारी,
कृष्ण नहीं आए तो क्या, तू रश्मिरथी दोहराती नारी।
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे, कहने का रख विश्वास सदा,
निद्रा से जागकर बोल मेरे संग, भय बिन होए न प्रीत कदा॥
भय बिन होए न प्रीत कदा................ ।
॥ धन्यवाद ॥