By Kavita Verma
औरो को अच्छी लगूँ या नही मैं,
पर अब खुद को अच्छी लगने लगी हूँ।
पहले जीती थी घुट-घुट कर मैं,
पर अब खुल कर साँस लेने लगी हूँ।
शामिल थी दुनिया की भीड़ में मैं,
पर अब खुद के बनाये रास्तों पर चलने लगी हूँ।
रहता था ताला जुबां पर, सोचो पर बंदिशे थी,
पर अब खुद को महत्व देने लगी हूँ।
आसमान में उड़ते परिन्दे, ढूंढ रहे हैं अपना आशियाना,
पर अब मैं अपना घर बनाने लगी हूँ।
बेरहम समाज के झूठे अहम से ऊपर उठकर मैं,
अब खुद को महत्व देने लगी हूँ।
तन का श्रृंगार तो दुनिया देखे,
पर अब मैं अपना मन सुन्दर सजाने लगी हूँ।
बारिश, किताब और चाय, ढूंढा साथ किसी का,
पर अब मैं खुद का ही साथ निभाने लगी हूँ।
बंद थे जो दिल के पिंजरे में सपने कई,
अब उन्हें आज़ाद कर जीने लगी हूँ।
रहती थी औरो की उलझनों में उलझी मैं,
पर अब अपने मन की गिरह सुलझाने लगी हूँ।
पूर्ण नहीं समाज की दृष्टि में चाहे मैं,
पर अब खुद को ही सम्पूर्ण समझने लगी हूँ।
क्योंकि औरो को अच्छी लगूँ या नही मैं,
पर अब खुद को अच्छी लगने लगी हूँ।