By Kashish Ahuja
किसीने छेड़ी नज़्म
तो किसीने छेड़ीं ग़ज़ले।
लेकिन असल बात तो तब बनी
जब छेड़े मैंने औरतों के मसले॥
बचपन में जब जब उसने आटा गूँधा
उसके लिए बखूबी तालियाँ बजाई गई।
जब जब उसने रसोई में झाँका
उसे एक संस्कारी बिटिया वाली पट्टी पढ़ाई गई॥
वो मासूम तो बस इसी तारीफ़ की भूखी थी,
तो हर दिन रसोई की चौखट लांघती रही।
फिर तुमने भी उसे जन्मदिन पर
छोटे छोटे बर्तनों का बाज़ार जो थमा दिया,
वो बिचारी तो
उन्हें सिर्फ़ खिलौना समझ कर खुश होती रही॥
यू ही खेलते खेलते
अब रोटियो की गोलाई उसकी क़ाबिलियत नापने लगी।
वो इतनी भोली की
उसे पता ही न चला
कि कब रसोई की चौखट
उसकी सरहद बन गई ।
वो इतनी भोली की
उसे एहसास ही ना हुआ कि कब
छोटी-सी रसोई ही उसकी पूरी दुनिया बन गई॥
परियों की कहानी से निकली वो लड़की
अब हक़ीक़त की सलाख़ों में क़ैद हो गई।
कि दिन शुरू हुआ भी नहीं था जब
वो चूल्हे के पास चली गई ।
कि रात हुई भी नहीं थी अब तक
फिर भी उसपर पाबन्दियाँ लगा दी गई ।
सूरज आया भी नहीं था अब तक
की उसका शरीर ढक दिया गया ।
उसने आँखें मूँदी भी नहीं थी अब्तक,
अरे वो आँखें मूँदे
उससे पहले ही उसकें सपनों को ख़ारिज कर दिया गया था॥
कोहरे आए भी नहीं थे अब तक
मगर उसके हाथ पाओं में दरारें आने लगी थी।
बरसात आई भी नहीं थी अभी
पर उसकी आँखें तो कुछ और ही बता रही थी।
बर्तन गिरा भी नहीं था अब तक
वो ग़लतिया करने से पहले ही खुदको सँभाल जो लेती थी।
वो जानती थी डर क्या है…
पर अब
डर से ज्यादा तो ख़ौफ़ में रहने लगी थी॥
वो कभी ना बन पाई
किसी महफ़िल का हिस्सा
महफ़िलें तो हर दिन हर घर में सजती थी।
की जब तक
वो काम के बोझ से ख़ुद को आज़ाद करें
तब तक तो महफ़िलो की कुर्सियाँ भी ख़ाली हो जाया करती थी॥
बड़ा दुख होता है मुझे यह सोच कर कि—
जब तक नए आँगन को अपनाए वो
पुराना दरवाज़ा उसके लिए बंद हो चुका था;
कौन कहता है कि
औरत के दो घर होते है!
यह बात तो बड़ी बेतुकी है
क्योकि
औरत के दो घर वाली कहानी का तो हर पहलू
पहले से अधूरा छूट चुका था॥
अगर हक़ीक़त कुछ शब्दों में बयान करूँ—
तो जिसकी चीख उठी, उसी का मुँह दबाया गया।
जो ख़ामोश रहा , वही ज़ुल्म सहता गया।
जिसने हाथ उठाया , उसी पर तो पर्दा डाला गया।
किसीने सच ही कहा है कि
जो जितना झुका,
उसे उतना कुचला गया॥
लेकिन बस
अब बहुत हुआ॥
संविधान ने कह तो दिया
कि सब बराबर है…
मगर समाज ने तो बराबरी को महज़!
किताबों में ही छोड़ दिया ॥
“वो नारी तो पूरा आसमान है
तुम तो बस उसका एक तारा हो।
वो नारी अगर रात में छाया अंधेरा है
इसलिए तो तुम चमकता सितारा हो॥”
यह बात भले कितनी ही कड़वी हो
लेकिन हक़ीक़त है कि—
अगर वो चाहती तो क़ब्र के सन्नाटे को ही
तुम्हारी पहली लोरी में बदल दिया जाता।
वो चाहती
तो तुम इस जहान की रौशनी देखो
इससे पहले ही तुम्हें भी दफन कर दिया जाता।
मगर अफ़सोस…कि
ये दुनिया अगर औरतों की हो भी जाती
तभी
वो माँ, बेटी या बहन
तुम्हें आँच ना आने देती।
ये ज़ुल्म तो समाज की बदौलत है…
वरना औरतें इतनी बेरहम कहाँ
जो तुम्हारी हिफ़ाज़त ना करती।
अरे!!
वो नारी है, दरिंदा नहीं
जो एक को सीने से लगाती
और दूसरे को दफन कर देती॥
तो बताओ….
वो ग़ुरूर
वो नाज़
किस बात का है तुम्हें?
क्योकी
कर सकते तुम बर्दाश अगर,
तो खून की धाराएँ हमारे नहीं,
तुम्हारे जिस्म से उतरती।
अगर होती तुम में ताक़त इतनी,
तो हमारी नहीं
तुम्हारी कोख में एक जान पल रही होती।
अगर तुम्हारी भी ख़ूबसूरती पर कोई पहरा देता,
तो ज़ख़्म हमारे नहीं
तुम्हारे बदन पर भी सजाए जाते।
अगर किसी और का घर बसाने का हुनर तुम में होता…
तो विदाई की रस्म हमारी नहीं,
शायद तुम्हारी होती॥
एक तो ये दुनिया फ़रेबी
और इंसाफ़- इस दुनिया का सबसे बड़ा फ़रेब!
क्योकि
इंसाफ़ ही सच होता अगर…
तो इज़्ज़त के तराज़ू में
सिर्फ़ हमें नहीं,
तुम्हें भी तोला जाता।
मैं सच कहती हूँ की—
अगर ज़माने ने ज़िल्लत ना दी होती हमें
तो ये बराबरी का मुद्दा कभी उठाया ही नहीं जाता ॥
तुम्हें किस बात का नाज़ है ख़ुद पर-
मैं नहीं जानती।
लेकिन हाँ!
यह आज कल की इतनी प्यारी लड़किया,
मुझे नाज़ है तुमपे
मुझे नाज़…है हमपे ॥
सदियो की जंजीरो को तोड़कर
वो अब कंधे से कंधा मिला चुकी है।
जिसे हमेशा सिक्को की आहट से दूर रखा गया
वो आज…
दौलत और शानों शौक़त में जीना सीख चुकी है।
वो नारी तो बराबरी कर चुकी है
अब कौनसा मुक़ाम हासिल करना बाक़ी है।
अब बराबरी की बारी तो तुम्हारी है
लेकिन देखते है…
कि कौन औरतों के हालातों से गुज़रने को राज़ी है॥
अपनी ताक़त पर इतना ग़ुरूर है तुम्हें
तो चलो!
इन चार दीवारों में जान डालकर दिखाओ।
इन ईंटों को सजाना तो बड़ा आसान है…
अरे!
ईंटों से जोड़ जोड़ कर बनाना तो बड़ा आसान है…
तुम में दम है अगर,
तो इस ढांचे को आशियाना बनाकर दिखाओ।
है तुम में वो हिम्मत अगर,
तो औरत के बिना इस मकान को घर बनाकर दिखाओ।
है तुम में वो हौसला अगर,
तो नारी से बराबरी करके दिखाओ॥
वो ना हो तो घर वीरान सा लगता है,
वो है तो घर आशियाना लगता है।
औरत से घर है
उसी से है पहचान।
औरत से ज़माना है
उसीसे है जहान।
औरत से सफ़र है
वही है दास्तान।
औरत से संसार है
वही है संसार की शान।
औरत से घर है
औरत ही घर है
उसी से है पहचान॥