By Deepti Mishra

काम वाली बाई...
वो तो मैं भी हूँ,
हूँ ना?
पर कोई मुझे 'काम वाली बाई' नहीं कहता
मुझे 'मैडम' कहते हैं।
वो भी जो मुझे जानते हैं,
और वो भी जो नहीं जानते।
गाड़ी तक जाती हूँ तो दरवाज़ा खुलता है,
किसी के घर जाऊँ तो गार्ड सलाम करता है,
दुकान से सामान खरीदूँ तो लड़का गाड़ी तक छोड़ने आता है।
मैं भी तो सारे काम करती हूँ
फिर भी कोई मुझे 'बाई' नहीं कहता।
तो मेरे घर में काम करने वाली कल्याणी
'काम वाली बाई' क्यों कहलाती है?
क्या उसका रहन-सहन?
या उसका पहनावा?
क्या ये सच में इतना मायने रखता है?
काम तो दोनों करते हैं—
वो अपने हिस्से का, मैं अपने।
तो फर्क सिर्फ़ संबोधन में क्यों?
क्या ये कोई ""राशियों"" का खेल है?
नहीं, हमारी राशियाँ तो एक-सी ही हैं!
कल एक दुकान गई
मालकिन बारहवीं पास थी,
सेल्सगर्ल बीएससी पास।
फिर भी 'मैडम' तो मालकिन ही थी!
मैंने अपनी बाई से पूछा—
उसने सरल जवाब दिया—
""मेरी माँ भी बाई थी मैडम,
और उसकी माँ भी।""
पर इस जवाब से संतोष नहीं हुआ।
गहराई में जाकर सोचा—
शायद जो स्त्री पढ़ी-लिखी हो,
वो 'मैडम' कहलाती हो।
पर नहीं,
अगर वो पढ़ी-लिखी होकर भी सिर्फ़ घर सँभालती हो,
तो लोग उसे 'दीदी', 'भाभी', या
आँटी' कहते हैं।
'मैडम' तो सिर्फ़ तब कहलाती है
जब उसका पति या पिता कोई बड़ा अफ़सर हो,
या फिर 'सर' कहलाता हो।
और अगर वो खुद कामकाजी हो
तो भी अजनबी गार्ड या दुकानदार कैसे जान लेते हैं
कि वह 'मैडम' है?
तब समझ आया
यह हमारे आत्मविश्वास का असर है।
पढ़ाई से, अनुभव से, दुनिया देखने से
जो एक चाल में, बोलचाल में, व्यवहार में झलकता है
वही हमें 'मैडम' बना देता है।
मैंने ये सब कल्याणी को बताया—
वो मुस्कुराई।
बोली, ""दीदी, दो दिन की छुट्टी चाहिए।
बड़ी बेटी की शादी है।
शराबी बाप से तंग आ गई है
सोचा, भागने से अच्छा है शादी कर दूँ।
शायद अच्छा ससुराल मिल जाए,
तो आत्मविश्वास न सही,
ख़ुशी तो मिले।""
मैं चुप हो गई।
हल्की मुस्कान के साथ
अपने इस चिंतन को विराम दिया।
कुछ अधूरा सा रह गया शायद...
बाई शायद न समझी,
पर मैडम कुछ-कुछ समझ गई।