By Juhi Jain
झिर्रियों के आर-पार
पीछा करती तुम्हारी ज़र्द निगाहें
दरीचों के बीच,
टटोलती नज़रों का कंपन
चाँदनी के उजले सन्नाटों में।
गुपचुप घूरती एक अनजान नज़र।
पल-पल मेरे जिस्म को
बेपरदा करते ये जज़्बात,
उधेड़ देते हैं हर सीवन,
तड़का जाते हैं हर उस आस को
जिसकी नींव
रिश्तों में दबी होती है।
सोचती हूँ अक्सर कि
तुम्हारा यूँ कनखियों से
मुझे तराशने की कोशिश
क्या साबित करती है?
सिमटाकर यूँ मेरी उन्मुक्त परवाज़,
तुम कौन से एहसास जगाते हो?
मैं तो बस इतना जानती हूँ—
जिस्म और रूह के फ़ासले
यूँ मिटते नहीं बेपरदा होकर।
देह की तपिश,
हर नाज़ुक सिहरन
बदनीयती से नहीं होती नम।
मेरा गुरूर, मेरा वजूद आज
तुम्हारी नज़रों के पार खड़ा है।
आज खामोश ये अफ़साने
कभी तो ज़ुबां तक आएँगे,
और तब तक तुम्हारे–मेरे बीच
सब एहसास मर जाएँगे।
