By Jatin Saini
बेठे हम उस दरवाज़े पर,
शाम ढलती थी नरम हवाओं में,
सुंदर आसमान पे रंग बिखरते थे,
जैसे कोई ख़्वाब हो फ़िज़ाओं में।
सुंदर बाग़ था, छोटी-सी दुनिया,
फूलों की हँसी और पत्तों की गुफ़्तगू,
हर कोना कुछ कहना चाहता था,
जैसे ज़मीन भी हो किसी गीत की धुन।
सुंदर वो खेती, गेहूँ की बालियाँ,
लहराती थीं जैसे दिल के जज़्बात,
सूरज ढलता तो सोना बरसता,
और मैं सिर्फ़ सुनता रहता... ख़ुद से बात।
वो बोलती थी — आँखों से, मुस्कान से,
मैं चुप रहता, पर हर लफ़्ज़ समझ लेता,
वक़्त था थोड़ा, पर लम्हों में जी लिया,
फिर भी कुछ था जो रह गया... मैं कह न सका।
आज भी कभी आँखें बंद करता हूँ,
वो दरवाज़ा, वो बाग़, वो पल याद आता है,
और एक आवाज़ दिल से निकलती है —
काश, एक बार फिर, वो शाम लौट आए तो।
और दिल के किसी कोने में एक ख़्वाहिश जगती है,
बस यहीं रहूँ...
कभी उस दरवाज़े से लौट कर न जाऊँ।