By Janvi Shetty

मुझ में जो मैं हूँ,
क्या सच में, मैं हूँ
या है ये कोई आईना,
समाज के बोझ में फँसी एक नकली हँसी का
क्यू मुझको मुझ में,
मैं ही नहीं दिख पाती,
क्या सच में मुझे मैं नज़र नहीं आती
क्या सच्चा है क्या झूठा,
क्या ये भी मुझको मैं नहीं समझा पाती
या सच अब मुझमें वो रहा नहीं,
जो कभी मुझमें था मेरा, अब मेरा बचा नहीं
कश्मकश ये मैं किस को सुनाऊं,
जो सुनाऊं, तो क्या सच में सच सुनाऊं,
या फिर वही नकली बात सबकों बताऊँ
जिसमें फिर मैं मेरी वाली मैं नहीं, पर सबकी वाली मैं बन जाऊँ
आँसू फिर छुपा लू,
खुद को खुद से हटा लू
बस रखूं सामने ऐसी हँसी,
जो दिखे असली पर हो नहीं
क्योंकि सब छुपाना ही तो समाज की रीत है
जो दिखा दे सब असली, वो बेर-ए-हाल एक आम सा गीत है
नग़्मा तो वो बने जिसमें दुख, दर्द और पीड़ा हो,
पर फिर भी, सबकों सब बढ़िया दिखाने की उसमें क्रीड़ा हो
क्योंकि, असली आँसू दिखाना तो कमज़ोरी है
और जो आँसू छुपा के पी ले, बस हँसता हुआ जी ले
वही नकली खुशी की असली तिजोरी है….
फिर भी दिल तू क्यों नहीं ये मान पाता,
की तेरे जैसा तू होता
तो शायद तुझमें होती हँसी,
जो ना होती बोझ में फ़सीं
पर फिर ये ज़माना तुझको गिराता
और तुझको ये कहने पे मजबूर कराता ....
की नहीं है तुझमें तू और यही है तेरी सच्चाई
ना तू खुद को ना घर को ना दुनिया को भायी
बस तू इस भीड़ का एक हिस्सा है,
और अनगिनत क़िस्सों में, तू भी तो बस एक किस्सा है
और जब तक तू ना भाएगी सबकों,
तब तक भीड़ में अकेली पाएगी खुद को,
और पूछती रहेगी यही खुद से ...
मुझ में जो मैं हूँ,
क्या सच में मैं हूँ
या है ये कोई आईना समाज का,
जो बेर-ए-हाल ना बन पाया खुद का…. ना किसी और का
Nice poetry